सुन मेरे बंधु रे

'सुन मेरे बंधु रे' 

हिन्दी सिनेमा एवं बंगाली सिनेमा में बहुतेरे मांझी गीत हैं, जिनकी रचना अलग - अलग संगीत में की गई है. फिर भी भटियाली, एवं पहाड़ी राग आधारित मांझी गीतों की धुनें बनाना उनमें संगीत निर्माण में एवं गायिकी में बर्मन दादा का कोई सानी नहीं है था. आज भी नहीं है..

महान विमल दा ने बर्मन दादा की आवाज़ एवं उनकी संगीत का समझ का बेहतरीन उपयोग किया था. बर्मन दादा ने 'ओ रे मांझी मेरे साजन है उस पार' इस गीत की धुनें एवं संगीत निर्माण किया था साथ ही गाया भी था. कालजयी फिल्म सुजाता के 'सुन मेरे बंधु रे सुन मेरे मितवा’ की मांझी शैली की विरह भरी पुकार आज भी बर्मन दादा की रची गई दुनिया अपनी तरफ खींच ले जाती है. बांकी संगीतकारों ने केवल भटियाली संगीत ही रचा, वहीँ बर्मन दादा के मांझी गीतों में विविधता देखी जा सकती है... फिर भी नाविक गीतों में एक समानता पाई जाती है. 

इस गीत के फिल्मांकन के तो क्या ही कहने, सुनील दत्त साहब नूतन जी से कुछ कहते हैं.. इतने में ही नाविक वहाँ से गाता है, जो स्पष्ट दिख नहीं रहा.. 

'सुन मेरे बंधु रे.. सुन मेरे मितवा सुन मेरे साथी रे' दत्त साहब नूतन जी से एक ख्वाब का जिक्र करते हैं, तब ही नूतन जी उनकी बाहों में समा जाती हैं.

वहाँ नाविक भी रुक रुक कर गा रहा है... होता तू पीपल, मैं होती अमर लता तेरी
तेरे गले माला बन के, पड़ी मुस्काती रे सुन मेरे साथी रे
सुन मेरे बंधू रे ...

दीया कहे तू सागर, मैं होती तेरी नदिया
लहर बहर कर तू अपने, पीया चमन जाती रे
सुन मेरे साथी रे
सुन मेरे बंधू रे ...

मजरुह सुल्तानपुरी साहब के लिखे इस गीत को बर्मन दादा ही गा रहे हैं, यूँ लगता है जैसे कोई दूसरे लोक का व्यक्ति गा रहा है, उनकी आवाज़ एवं गायन शैली अनूठी है.... विमल दा की सिनेमाई समझ के तो क्या ही कहने माशाल्लाह ❤️

दिलीप कुमार

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