"ओ रे मांझी"
ओ रे मांझी
बर्मन दादा कितने महान, जीनियस संगीतकार रहे हैं, अपनी मौलिकता के लिए जाने जाते थे. कोई भी गीत, कोई भी गायक नहीं गा सकता.. जैसे बर्मन दादा गाते थे, वैसे केवल वे ही गा सकते थे. बर्मन दादा कंपोज़र के साथ ही महान गायक भी रहे हैं. बतौर गायक बर्मन दादा की आवाज़ बहुत अनोखी थी, सुनकर लगता है, जैसे कोई दूसरी दुनिया का गायक गा रहा है.
वैसे विमल दा की सिनेमाई समझ का कैनवास बहुत बड़ा था. उन्हें भला निर्देशन में कोई सलाह दे सकता है? नहीं दे सकता. लेकिन विमल दा ने बर्मन दादा के कहने पर ही गीत ओ रे मांझी फिल्म के क्लाइमेक्स में रखना उचित समझा.
बर्मन दादा ने जितने भी गीत गाए, उनको दार्शनिक गीत का खिताब मिला है. उन्होंने शायद ही किसी ऐक्टर को अपनी आवाज़ दी हो. बर्मन दादा ने हमेशा से ही बैकग्राउंड में अपनी आवाज़ दी, जैसे मन किसी दोराहे पर खड़ा होता है, कि लौट जाऊँ या रास्ता पार कर लूं. पहाड़ी राग का यह कालजयी गीत कहीं नदी किनारे चलती नाव में बज रहा सुनाई दे तो आँखे ढूढ़ने लगती हैं. जिसे लिखा गीतकार कविराज शैलेन्द्र जी,ने बर्मन दादा, ने गाया एवं संगीतबद्ध किया. वहीँ फ़िल्मकार विमल दा...ने इस गीत को फिल्म के अंत में रखने की मंजूरी दी थी .
दादामुनि अशोक कुमार, नूतनजी, धरमजी ने कमाल का अभिनय किया है. बंदिनी फिल्म के इस गीत में फिल्म का क्लाईमेक्स फिल्माया गया है, जो अपने आप में कमाल है.
नौका में बैठी कल्याणी (नूतनजी) सोच रहीं हैं, कि कर्तव्य पथ पर एक पत्नी का धर्म निभाने के लिए अस्वस्थ पति विकास घोष (अशोक कुमार) के पास लौट जाऊँ जिसे मेरी सबसे ज्यादा जरूरत है .
रे माँझी.. ओ रे माँझी.. ओ ओ मेरे माँझी
मेरे साजन हैं उस पार मैं मन मार, हूँ इस पार
ओ मेरे माँझी अब की बार
ले चल पार, ले चल पार
या फिर दिल की सुनूँ और अपने सपनों को उड़ान भर लूँ. एक ऐसा राजकुमार डॉ देवेन्द्र(धर्मेंद्र) है जो दुनिया की सारी खुशियाँ देगा. वैसे भी डॉ. देवेन्द्र को एक पल में भूलना इतना आसान नहीं था. जिसने जीने की वज़ह दी.
ओ मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना
गुण तो न था कोई भी अवगुण मेरे भुला देना
मुझे आज की विदा का मर के भी रहता इंतज़ार
मेरे साजन हैं उस पार मैं मन मार, हूँ इस पार
ओ मेरे माँझी अब की बार
ले चल पार, ले चल पार
मेरे साजन हैं उस पार...
कल्याणी (नूतन) एवं विकास (अशोक कुमार) एक दूसरे से मानसिक क्षमा याचना करते हैं.. कि शायद हमने वो दुनिया बहुत पीछे छोड़ दिया. कभी जिसकी हमने कल्पना की थी.
मत खेल जल जाएगी कहती है आग मेरे मन की
मैं बंदिनी पिया की मैं संगिनी हूँ साजन की
मेरा खींचती है आँचल मनमीत तेरी, हर पुकार
मेरे साजन हैं उस पार.....
अखिरकार कल्याणी (नूतन) अंतर्मन की आवाज़ सुनते पति विकास (अशोक कुमार) के पास लौट जाती हैं.. स्त्री मन को दर्शाता यह कालजयी गीत, देखने, सुनने समझने के लिहाज से बहुत ज्ञानवर्धक है. जो महान विमल दा के करिश्माई निर्देशन, कविराज की बोलती हुई क़लम, बर्मन दादा की अनोखी आवाज़ एवं संगीत... वहीँ दादा मुनि अशोक कुमार, नूतन जी एवं धर्मेद्र जी की अदाकारी यादगार है.
दिलीप कुमार
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