"ऋषिकेश दा का कॉमिक कॉकटेल चुपके चुपके"

"ऋषिकेश दा का कॉमिक कॉकटेल चुपके चुपके" 

ऋषिकेश दा हल्के फुल्के घरेलू विषय पर, बेहतरीन कॉमेडी का ऐसा कॉकटेल तैयार करते थे,  कि दर्शकों का नशा आज भी बरकरार है. उनकी सिनेमाई समझ उत्तम रही है. ऋषिकेश दा हिन्दी सिनेमा के अनोखे फ़िल्मकार थे. जो फिल्म तो साधारण ही बनाते थे, फिर भी उनकी सभी कॉमिक फ़िल्में... हिन्दी सिनेमा के दिल में धड़कती हैं. आज भी हिन्दी सिनेमा की सबसे महान कॉमिक फिल्म का जिक्र होता है, तो चुपके-चुपके का नाम सबसे अग्रणी है.... देखा जाए तो चुपके - चुपके जैसी कालजयी फ़िल्में बनाई नहीं जातीं, इत्तेफ़ाक से बन जाती है, लेकिन ऋषिकेश दा का यह सिग्नेचर स्टाइल था, जो भी बनाते यादगार बन जाता था. ऋषिकेश दा के फिल्म कहने की कला अपने आप में कमाल रही है.. फिर चाहे बावर्ची हो या चुपके चुपके फिल्म... छोटे-छोटे घरेलू विषयों को सिल्वर स्क्रीन पर ऐसे उकेरते थे, कि दर्शक बह जाते थे. 

चुपके चुपके कहानी कोई बहुत ख़ास नहीं है, ऐसे ही हल्का - फुल्का विषय है.. पारिवारिक ड्रामा है, जिसमें केवल दो - तीन पात्र ही अपरिचित हैं, बांकी सभी को पता है, कि यह ड्रामा क्यों चल रहा है.. ऋषिकेश दा हल्की सी स्टोरी को अपने रस में डुबोकर ऐसे फ़िल्में बनाते थे, कि दर्शक कभी भूल नहीं सकते. खास बात जिसने भी यह फिल्म एक बार देखी होगी, उसने पुनः ज़रूर देखा होगा. कुछ तो ऐसे भी हैं जिन्होंने यह फिल्म कई बार देखा है.. फिल्म की कहानी प्रमुखता से दो पात्रों के अंतर्गत घूम रही है.. एक हैं बॉटनी के प्रोफेसर परिमल त्रिपाठी (धर्मेद्र) जो खुद को फूल पत्तियों का डॉ. कहते है.. दूसरे सुलेखा (शर्मिला) के जीजाजी राघवेंद्र (ओमप्रकाश) हैं, जो अपनी साली के सबसे अच्छे दोस्त हैं.. जब तक परिमल त्रिपाठी नहीं आते तब तक राघवेंद्र (ओमप्रकाश) ससुराल में सबसे ज्यादा प्यार पाते हैं.. 
वहीँ परिमल त्रिपाठी (धर्मेंद्र) जो अपनी बीवी सुलेखा (शर्मिला टैगोर) से बार-बार उसके जीजा राघवेंद्र (ओमप्रकाश जी) की चतुराई और चालाकी की बड़ाई सुनते-सुनते तंग हो जाते हैं. सुलेखा जीजा राघवेन्द्र को दुनिया का सबसे चतुर इंसान समझती है, और दावा करती है कि जीजाजी को कोई बेवकूफ़ नहीं बना सकता... जीजा राघवेन्द्र (ओमप्रकाश जी) की तारीफों के पुल बाँध रही सुलेखा (शर्मिला) को सुन सुन कर परिमल त्रिपाठी अपनी पत्नी से शर्त लगाते हैं, कि अपनी बीवी के सामने उनके जीजा को हराकर ही दिखाएंगे. बड़ी बात यह है कि सुलेखा (शर्मिला) के बड़े भैया (डेविड) भी प्यारे मोहन के साथ मिले हुए हैं. 

फिर क्या है!! परिमल जी ड्राइवर प्यारे बन कर पहुंच जाते हैं, 
जीजाजी (ओमप्रकाश जी) को हराने एवं परेशान करने. जीजाजी की पर्सनैलिटी की खास बात यह है कि वो शुद्ध हिन्दी में बात करते हैं, और जो भी शुद्ध हिन्दी में बात नहीं करता, उसे वो बेवक़ूफ़ समझते हैं.. प्रोफेसर परिमल त्रिपाठी (धर्मेंद्र) भी शुद्ध हिन्दी ही बोलते हैं.. 


फिर तय वक़्त पर सुलेखा (शर्मिला) बंबई आती है, तो दीदी-जीजाजी यह देखकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं. कि सुलेखा (शर्मिला) और प्यारे मोहन (धर्मेंद्र) के बीच कुछ चल रहा है. दोनों बेचारे शंका में परेशान रहते हैं. फिर एक दिन ये दोनों सुबह ही बिना बताए घर 'भाग' जाते हैं. रूपरेखा ही ऐसे बनी हैं, कि जीजाजी को लगता है कि सुलेखा सचमुच प्यारे मोहन ड्राइवर के साथ भाग गई है. 
तय वक़्त पर परिमल का दोस्त सुकुमार (अमिताभ) आ धमकता है. परिमल त्रिपाठी बनकर! अब सबसे बड़ी बला यह है, कि दामाद साहब को कैसे बताया जाए ! कि उनकी पत्नी तो ड्राइवर के साथ भाग गई! ऊपर से सितम यह कि सुकुमार (अमिताभ बच्चन) इस साजिश में शामिल एक अन्य मित्र पीके श्रीवास्तव (असरानी) की साली वसुधा (जया) पर आसक्त हो जाता है. जो सुकुमार को शादीशुदा परिमल समझती है'. चुपके-चुपके' में सब पात्र गोलमोल कर देते हैं.... प्यारेमोहन और जीजाजी के बीच नोंकझोंक के दृश्य हों या फिर वे दृश्य जहाँ जीजाजी सुलेखा की करतूतों से स्वयं को बेबस, लाचार और शर्मिंदा पाते हैं. या 'परिमल' उर्फ सुकुमार (अमिताभ) द्वारा वसुधा (जया) को बॉटनी का पाठ पढ़ाते हुए.. यादगार हैं. 

इस फिल्म में सभी का अपना एक योगदान था, लेकिन ओमप्रकाश जी एवं ग्रेट धरम जी की जुगलबंदी ने इस फिल्म को सातवें आसमान पर पहुँचा दिया था.... ओमप्रकाश जी ने ज़िन्दगी में एक से बढ़कर एक रोल किए हैं, लेकिन यह भूमिका भी उनके सिनेमाई जीवन की सबसे बेहतरीन भूमिका कही जा सकती है. शर्मिला टैगोर की ज़िंदगी के सबसे बेहतरीन कॉमिक अदाकारी भी कही जा सकती है. वहीँ अमिताभ, जया, असरानी भी कमाल करते हैं... 
इस फिल्म की सबसे बड़ी बात यह रही है कि उसी साल 1975 में शोले रिलीज हुई थी, और चुपके - चुपके भी, लेकिन इस कॉमिक कॉकटेल के बाद भी इसी फिल्म के आधे से ज्यादा पात्र शोले फिल्म में दूसरी तरह की भूमिकाओं से इतिहास लिख देते हैं.. ऋषिकेश मुखर्जी का कमाल यह है कि उनके सामने धर्मेद्र हो, या अमिताभ सभी कमाल करते हैं... कौन भूल सकता है, अभिमान फिल्म में जया का वो बालों के पानी छिटकने से अमिताभ को जगाने का सीन... हिन्दुस्तान में शायद ही कोई कपल हो जिसने यह ट्राई न किया हो.. यही सिनेमैटिक समझ होती है, जो विकसित हो जाए तो फिर फ़िल्मकार कालजयी ही रचता है.

वैसे भी यह फिल्म धरम जी के लिए सबसे खास है, धरम जी खुद एक साक्षात्कार में बताते हैं "दरअसल मेरे पिता जी असल ज़िन्दगी में चाहते थे कि मैं अध्यापक बनूँ , इसलिए मैं अपने पिताजी को फिल्म दिखाने ले गया था. मैंने कहा देखिए बाबू जी मैं टीचर बन गया.. तब बाबू जी आधी खुशी छिपाकर कहते हैं "अरे बेवकूफ़ मैं चलचित्र में नहीं असल ज़िन्दगी में चाहता था,... धरम जी कहते हैं" ख़ैर बाप तो बाप ही होता है".. ऋषिकेश दा की फिल्म चुपके - चुपके  हिन्दी सिनेमा के दिल में धड़कती रहेगी..

दिलीप कुमार 

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