नेचुरल ऐक्टर मोतीलाल जी
'एक फिल्म के कारण दुनिया छोड़ गए मोतीलाल जी'
(मोतीलाल राजवंश)
मोतीलाल भारतीय सिनेमा के पहले नेचुरल ऐक्टर थे. जो अपनी ख़ास भाव - भंगिमाओं के लिए प्रसिद्घ थे. कौन भूल सकता है! बिमल रॉय की क्लासिकल कल्ट फिल्म देवदास में शराबी दोस्त 'चुन्नी बाबू' की भूमिका जिसे उन्होंने लार्जर देन लाइफ बना दिया था .. बहुत सी देवदास बनी, लेकिन चुन्नी बाबू के रोल में उनका कोई जवाब नहीं था.. दर्शकों के दिमाग में एक सीन आज भी अंकित है , नशे में चूर चुन्नीबाबू घर लौटते हैं, तो दीवार पर पड़ रही खूंटी की छाया में अपनी छड़ी को बार-बार लटकाने की कोशिश करते हैं. ‘देवदास’ का यह क्लासिक सीन है. कुछ सीन सिनेमा इतिहास में अमर हो जाते हैं. इसी फिल्म में मोतीलाल जी के साथ अभिनय सम्राट दिलीप साहब भी थे. कहते हैं कि आजादी के बाद उनके समकालीन अभिनेताओं को छोड़ कर भारत में शायद ही कोई ऐसा ऐक्टर होगा, जिसमें दिलीप साहब की ऐक्टिंग की झलक न मिले. सभी उनकी ऐक्टिंग से प्रेरित रहे हैं... लेकिन अभिनय सम्राट अपनी ज़िन्दगी में मोतीलाल की ऐक्टिंग से प्रेरित रहे हैं. दिलीप साहब मोतीलाल जी को अपना उस्ताद मानते थे.. डायलॉग किंग राजकुमार भले ही सोहराब मोदी, जगदीश सेठी की तरह डायलॉग डिलेवरी करते थे, लेकिन उन्होंने भी अपना उस्ताद मोतीलाल को ही माना है... भारत के पहले मेथड ऐक्टर मोतीलाल जी को कहा जाए तो शायद उचित होगा.
दिलीप साहब ने मोतीलाल जी को अब तक के सिनेमा का सबसे उम्दा अदाकार कहा था..अदाकारी की दुनिया में कला फ़िल्मों एवं मेन स्टीम फ़िल्मों की अदाकारी की गुणवत्ता का मानक अलग रहा है.. हालाँकि मोतीलाल जी एक अनोखे कलाकार रहे हैं, जो आज भी अभिनय सीख रहे बच्चों के लिए ग्रंथ बने हुए हैं.. फिर चाहे, समानांतर सिनेमा हो या व्यापारिक सिनेमा हो. देखा जाए तो अधिकांश अभिनेता उन्हें प्रमुखता से फॉलो करते हुए उनके नक्शेकदम पर चले. उनमे से कुछ दुनिया से रुख़सत भी कर गए. बलराज साहनी, दिलीप कुमार, राजकुमार, याकूब नसीरुद्दीन शाह टॉम ऑल्टर, रघुवीर यादव, राज बब्बर, इनमे से जो भी अभी सक्रिय हैं, वो अब भी मोतीलाल जो को जिंदा करे हुए हैं. एक अभिनेता के रूप में उनमें जो सहजता थी, वह सबसे ज्यादा उन्हें ही फबती थी... हालाँकि इन सभी अदाकारों ने समय के साथ अपने - अपने कीर्तिमान गढ़े. मोतीलाल जी स्वाभाविक अभिनेता थे, दर्शकों को हमेशा लगा जैसे वे बिल्कुल भी अभिनय नहीं कर रहे हैं. एक ऐक्टर के रूप में के उनकी विश्वसनीयता आदरणीय थी.
राजकपूर साहब की फ़िल्म 'जागते रहो' के उस शराबी को कौन भूल सकता है. रात को सुनसान सडक पर नशे में झूमता-लडखडाता गाता है- 'ज़िंदगी ख्वाब है... मोतीलाल जी ऐक्टिंग के लिहाज से कंप्लीट हीरो रहे हैं. कॉमेडी रोल से वे दर्शकों को गुदगुदाते थे, तो 'दोस्त' और 'गजरे' जैसी फ़िल्मों में अपनी संजीदा अदाकारी से दर्शकों को गंभीर मोड पर ले जाते थे. 50 के दशक बाद मोतीलाल ने कला फ़िल्मों के नायक की अपनी छवि स्थापित की.
मोतीलाल बहुत ही आकर्षक अदाकार रहे हैं.. वैसे भी वो अधिकांश बड़े बड़े किरदारों में ही दिखते थे. शिक्षित, स्मार्ट लुक के कारण हमेशा शूट - बूट एवं सिर पर एक कैप शोभा बढ़ाती थी. एक बार बहुत कमाल की ड्रेस पहने सागर स्टूडियो में शूटिंग देखने जा पहुंचे. वहां निर्देशक कालीप्रसाद घोष एक सामाजिक फ़िल्म की शूटिंग कर रहे थे. अपने सामने स्मार्ट यंगमैन मोतीलाल को देखा, तो उनसे खूब प्रभावित हुए. उन्हें अपनी फ़िल्म के लिए ऐसे ही हीरो की तलाश थी, जो बगैर बुलाए मेहमान की तरह सामने खड़ा था. उन्हें ऐसे लगा जैसे बिन मांगे मोती मिल गए. कालीप्रसाद घोष ने अगली ही फ़िल्म 'शहर का जादू'1934 में सविता देवी के साथ मोतीलाल को नायक बना दिया. तब तक सिनेमा में पार्श्वगायन प्रचलित नहीं था. लिहाजा मोतीलाल ने के. सी. डे के संगीत निर्देशन में अपने गीत खुद गाए थे. इनमें 'हमसे सुंदर कोई नहीं है, कोई नहीं हो सकता' गीत लोकप्रिय भी हुए थे..
मोतीलाल जी ने अपने सिनेमाई जीवन में राजवंश प्रोडक्शन की शुरुआत की थी. अपनी ड्रीम फिल्म छोटी-छोटी बातें' के निर्माण में उन्होंने सब कुछ झोंक दिया था. अफ़सोस फिल्म नहीं चल सकी, डिजास्टर साबित हुई. फ़िल्म को राष्ट्रपति का सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट ज़रूर मिला, दुःखद महान अदाकार मोतीलाल जी दिवालिया हो गए.. इस फिल्म ने हिन्दी सिनेमा से मोतीलाल जी को हमेशा के लिए छीन लिया.. मोतीलाल जी इस फिल्म के बाद उभरे नहीं, और उनका इंतकाल हो गया था. जैसे एक ही फिल्म ने भगवान दादा को चौपट कर दिया था, जैसे एक ही फिल्म ने कविराज शैलेन्द्र जी को खत्म कर दिया था.... एक ही फिल्म थी, जो राज कपूर साहब को खत्म कर देने वाली थी..एक फिल्म किसी को भी सुपरस्टार बना सकती है, तो एक फिल्म डुबो भी सकती है.
किसी भी कलाकार या आम इंसान के ज़िन्दगी में उसके द्वारा जिया गया एक लम्हा जेहन कैद हो जाता है. वह कभी भी इंसान से अलग नहीं होता... आदमी किसी भी हालत में हो, तब भी वो कभी उससे पीछा नहीं छुड़ा पाता..शायद कम ही लोग जानते होंगे.. कि मोतीलाल जी आजीवन बिना शादी - शुदा रहे.. लिहाज़ा उन्हें अंतिम कुछ वक़्त मुश्किल भरा गुजरना पड़ा.. अपने सिनेमाई सफ़र के शुरुआत की उस घटना को आजीवन नहीं भले ही ... बुरे - अंतिम वक़्त में थोड़ा उनकी याददाश्त भी ठीक नहीं थी. उन्हें उस फि़ल्म का नाम भी याद नहीं था.. लेकिन उस फि़ल्म के निर्माण के दौरान छोटी सी घटना के माध्यम से उन्हें जीवन में सबसे बड़ा आत्म बोध हुआ था, वह स्मृति जीवन के अंत तक उनके जेहन में तैरती रही..
बंबई में फ़िल्म के उसी सीन की शूटिंग कर रहे थे, मोतीलाल जी जूतों पर पालिश करने वाले एक आदमी का किरदार निभा रहे थे. फटे-पुराने कपड़े, बड़ी सी दाढ़ी, हाथ-पैर और आंखों में दरिद्रता से रोल में जान फूंक रहे थे.. अचानक उनको एक परिचित बुज़ुर्ग दिखायी दिए. उन बुजुर्ग को अभिनय क्या है, शूटिंग, फ़िल्म क्या है! शायद पता भी नहीं था! लेकिन मोतीलाल जी तो सब जानते हुए भी कि , यह केवल अभिनय है, मोतीलाल जी के उनकी आंखों से आँखे मिलाने की हिम्मत नहीं हुई. तब इतनी सिक्युरिटी नहीं होती थी. आखिरकार वो बुज़ुर्ग मोतीलाल जी के पास पहुंचे. फिर मोतीलाल जी को बुज़ुर्ग की तरफ़ देखकर बातेँ करना ही पड़ा. मोतीलाल जी देख रहे थे बुज़ुर्ग की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे, उनको उनकी इस दशा का दुःख हुआ. बुजुर्ग ने मोतीलाल जी से कहा "अभी तो मैं जि़ंदा हू बेटा, मेरे पास तुम क्यों नहीं आये. जैसे भी होता हम लोग मिलजुल कर अपना पेट पाल लेते. यह नौबत आने ही क्यों दी तुमने? ……मोतीलाल जी उस वक़्त कुछ बोल नहीं सके, लेकिन उस घटना को वो अपने लिए कभी न भूलने वाली स्मृति के साथ सबसे बड़ा अवॉर्ड समझते थे.. क्योंकि उन्हें लगा कि शायद मैं भूमिका में घुस गया था... मोतीलाल जी उन बुजुर्ग को याद करते हुए सोचते थे, कि काश कोई बुजुर्ग जैसे मेरे पास आए "क्या हुआ मैं हूँ बताओ"....इतना सुनने के बाद मरता हुआ आदमी जी उठता है... अफ़सोस उनके पास कोई गया नहीं.. हालाँकि मोतीलाल जी खुश रहने वाले इंसान थे.. जीवन के सबसे बुरे दौर में भी कभी दुखी नहीं हुए, और न ही कभी किसी के प्रति द्वेष रखा. हमेशा खुशी तलाशते थे.
दो दशक से भी ज्यादा उनका प्रभावी सिनेमाई सफ़र रहा, जहां उन्होंने देवदास, पैगाम, अछूत, होली, एक थी लड़की, मिस्टर संपत, पारख, अनाड़ी, जागते रहो, जैसी कल्ट फ़िल्मों में अपनी अदाकारी का जलवा दिखाया.. मोतीलाल जी सभी की प्रेरणा थे, सभी उनकी तरह बनना चाहते थे, लेकिन किसी ने भी उनकी कोई मदद नहीं की..मोतीलाल जी ने न जाने कितने कलाकारों को काम दिलाया. बहुतेरे कलाकार उनके प्रति आजीवन आभार की मुद्रा में रहे हैं, फिर भी कोई काम न आया. इसीलिए मैं हिन्दी सिनेमा को श्रापित दुनिया कहता हूं. भारत सरकार ने उनकी मृत्यु के बाद उनको राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित ज़रूर किया..वैसे भारत में कला अपना हर्जाना वसूल करती है.. ऐसे कई सुपरस्टारों का दुखांत असामयिक निधन हुआ है. मोतीलाल जी जैसे अदाकार कभी मरते नहीं है.. मोतीलाल जी जब दुनिया छोड़ गए तब तक तो मैं इस दुनिया में था भी नहीं, फिर भी आपकी रचनात्मक, सिनेमाई यात्रा का गवाह हूं.. यही आपकी कमाई है. हाल फ़िलहाल नायाब अदाकार मनोज वाजपेयी मोतीलाल जी को याद करते हुए पूरे हिन्दी सिनेमा की तरफ से मोतीलाल जी को आभार व्यक्त कर रहे थे.... वैसे भी बहुत मुश्किल, जोखिम भरा होता है भारत में कलाकार होना...
दिलीप कुमार
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