"सस्पेंस फ़िल्मों की ज़मीन बनाने वाले फ़िल्मकार राज खोसला"
"सस्पेंस फ़िल्मों की ज़मीन बनाने वाले फ़िल्मकार"
(राज खोसला)
हिन्दी सिनेमा में सस्पेंस थ्रिलर फ़िल्मों की जमीन तैयार करने वाले राज खोसला देवानंद साहब की खोज थे, जो गुरुदत्त साहब के मुकुट का नायाब हीरा सिद्ध हुए.. यूँ तो राज खोसला गायक बनना चाहते थे, लेकिन नियति ने उन्हें फ़िल्मकार बना दिया. बचपन से ही गायक बनने का शौक रखने वाले राज खोसला गीत - संगीत में गहरी रुचि रखते थे. हिन्दी सिनेमा में पार्श्वगायन में अपना मुकाम बनाना चाहते थे. आवाज़ अच्छी होने के कारण आकाशवाणी में बतौर संचारक काम करने लगे. 19 साल की उम्र में राज खोसला आकाशवाणी में थोड़ा सा काम करने के बाद हौसले की पूंजी लेकर बंबई के लिए चल निकले. हालाँकि यह आसान नहीं था.. "राज खोसला को फिल्म मेकिंग तो अच्छी लगती थी, लेकिन सिनेमा की दुनिया एवं सिनेमा के लोगों से कुछ खास लगाव नहीं था... यह उनका अंदाज़ बहुत निराला था..
बंबई भी विचित्र सा शहर है, साधारण लोगों को स्वीकार करता नहीं है, फिर भी जिसने अपनी मेहनत की पराकाष्ठा की फिर तो मजबूरन स्वीकार करना ही पड़ता है. बंबई में मुश्किलों से कट रहे वक़्त में राज खोसला को बमुश्किल रंजीत स्टूडियों में ऑडिशन दिया, हालांकि उन्हें नकार दिया गया. रंजीत स्टूडियों के मालिक सरदार चंदू लाल ने उन्हें बतौर पार्श्वगायक अपनी फिल्म में काम करने का मौका नहीं दिया. उन दिनों रंजीत स्टूडियो की स्थिती ठीक नही थी, अतः वो कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं थे. सरदार चंदूलाल को नए गायक की अपेक्षा मुकेश पर ज्यादा भरोसा था, अतः उन्होंने अपनी फिल्म में मुकेश को ही गाने का मौका दिया. राज खोसला के पास अब खोने के लिए कुछ नहीं था, लेकिन पाने के लिए बहुत कुछ था... ये वही दौर था, जब देव - राज - दिलीप की त्रिमूर्ति अपने शबाब पर थी.. सभी फिल्मकारों के अपने अपने धड़े काम कर रहे थे.. वहीँ देव साहब भी अपने नवकेतन की स्थापना कर चुके थे, वायदे के मुताबिक गुरुदत्त साहब देव साहब की फिल्म निर्देशित करने वाले थे..1948 में देवानंद साहब पाली हिल में रहते थे. राज खोसला भी देव साहब के पास ही रहते थे.
राज खोसला की दोस्ती चेतन आनंद की पत्नी उमा आनंद से हुई... राज खोसला हिन्दी सिनेमा में अपनी पहचान बनाने के लिए निरन्तर खाक छान रहे थे. काम की तलाश कर रहे राज खोसला की खास पहिचान देव साहब से भी हो चुकी थी. राज खोसला से देव साहब ने पूछा कि क्या वह गुरुदत्त साहब के असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर काम करेंगे? इस पर राज खोसला ने तुरंत हां कह दी और गुरुदत्त साहब के साथ जुड़ गए. धारा ही बदल गई कहाँ राज खोसला गायक बनना चाहते थे, अब वो फिल्म मेकिंग सीखने लगे. गुरुदत्त साहब के साथ सिनेमाई बारीकियों को सीखते हुए राज खोसला आत्मविश्वास में थे. 26 साल की उम्र में राज ने 1951 में आई फिल्म 'बाजी' में सहायक निर्देशक के तौर पर काम किया. राज खोसला ने चार साल तक गुरुदत्त साहब के साथ सहायक निर्देशक के तौर पर काम किया. गुरुदत्त साहब ने न जाने कितने लोगों को स्टार बनाया, उन्हें बड़े दिल का मालिक कह सकते हैं, गुरुदत्त साहब ने अपने प्रोडक्शन हाउस की फिल्म सीआईडी में राज खोसला को निर्देशक के तौर पर ब्रेक दिया. वर्ष 1956 में राजखोसला ने सी.आई.डी फिल्म निर्देशित किया. जब फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर अपनी सिल्वर जुबली पूरी की तब गुरुदत्त साहब इससे काफी खुश हुए. उन्होंने राज खोसला को एक नई कार भेंट की और कहा कि यह कार आपकी है, इसमें दिलचस्प बात यह है कि गुरूदत्त साहब ने कार के सारे कागजात भी राज खोसला के नाम से ही बनवाए थे. इससे गुरुदत्त साहब एवं राज खोसला दोनों की नजदीकी समझी जा सकती है.
सीआईडी फिल्म की सफलता के बाद गुरुदत्त साहब ने राज खोसला को अपनी एक ड्रीम फिल्म के निर्देशन की भी जिम्मेदारी दे दिया. राज खोसला ने उन्हें यह कह कर इंकार कर दिया कि एक बड़े पेड़ के नीच भला दूसरा पेड़ कैसे पनप सकता है. महान गुरुदत्त साहब ने राजखोसला से कहा कि गुरूदत्त फिल्मस पर जितना मेरा अधिकार है उतना तुम्हारा भी है. लिहाज़ा तुम्हें फिल्म का निर्देशन करना चाहिए. आख़िरकार राज खोसला मान गए. 1960 में राज खोसला ने फिल्म मेकिंग में अपनी किस्मत आजमाई. अंततः 'बंबई का बाबू' नामक फिल्म का निर्माण किया. फिल्म के जरिए राज खोसला ने अभिनेत्री सुचित्रा सेन को रूपहले पर्दे पर पेश किया. दरअसल सुचित्रा सेन को फिल्म में शामिल करने के पीछे मधुबाला जी का पीछे हट जाना रहा. पहले मधुबाला जी ने फिल्म साइन कर लिया था, लेकिन उन्हें बाद में पता चला कि इस फिल्म में उन्हें देवानंद साहब की बहिन का रोल करना है तो उन्होंने मना करते हुए कहा "मैं दुनिया के सुन्दर, आकर्षक, पुरुष देव साहब की बहिन क्यों बनूँ, जब कि हमारी पर्दे पर सुपरहिट जोड़ी है". इसे दर्शक स्वीकार नहीं करेंगे.. हांलाकि फिल्म दर्शको के बीच सराही गई लेकिन बॉक्स ऑफिस पर इसे अपेक्षित कामयाबी नही मिल पाई. फिल्म की असफलता से राज खोसला आर्थिक तंगी में फंस गए. फिल्म में देव साहब की बहिन का किरदार सुचित्रा सेन ने किया. देव साहब एवं सुचित्रा सेन को भाई-बहन दिखाए जाने को दर्शकों ने स्वीकार नहीं किया और फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औसतन रही.
50 के दशक में, निर्देशक राज खोसला को सीआईडी , वो कौन थी, कालापानी, जैसी फिल्मों के साथ हिंदी सिनेमा में सस्पेंस थ्रिलर के अग्रदूत के रूप में जाना जाने लगा. मेरा साया, दूसरों के बीच में खोसला ने सस्पेंस, थ्रिलर बनाने की अपनी ट्रेडमार्क शैली की स्थापना की जिसने दर्शकों को अपना मुरीद बना लिया था. सदाबहार अभिनेत्री साधना जी को मिस्ट्री गर्ल के रूप में पहिचान मिली, लेकिन उनको स्थापित करने वाले राज खोसला ही थे.. सस्पेंस थ्रिलर फ़िल्मों में राज खोसला को ख्याति प्राप्त थी, वहीँ साधना जी को भी इस तरह की खास फ़िल्मों के जरिए बुलन्दियों को छू रहीं थीं...वो कौन थी, मेरा साया, जैसी फ़िल्मों को केवल और केवल साधना जी के लिए ही याद किया जाता है.. राज खोसला को यूँ ही नहीं अभिनेत्रियों का निर्देशक कहा जाता.. राज खोसला की फ़िल्मों में स्त्री प्रधान रोल गढ़े जाते थे. इससे पता चलता है कि वो प्रगतिशील विचारधारा के इंसान थे. गुरुदत्त साहब भी इस शैली की फ़िल्मों के हिमायती थे, उन्होंने राज खोसला के साथ मिलकर वहीदा रहमान को ध्यान में रखकर एक स्क्रिप्ट पर काम भी किया, कुछ शूटिंग भी हुई लेकिन प्रोजेक्ट बंद कर दिया गया क्योंकि गुरुदत्त साहब संतुष्ट नहीं हुए. बाद में सन 1964 में इसी कहानी के राईट लेकर राज खोसला ने "वो कौन थी" नामक फिल्म बनाया, इसमें पहले साधना जी की जगह निम्मी थीं, लेकिन राज खोसला ने अपनी फेवरेट साधना जी को रिप्लेस किया, तो राज खोसला की आलोचना हुई, कि फिल्म फ्लॉप हो जाएगी. साधना जी की मासूमियत, रहस्य भरी अदाकारी से लोगों को खूब आकर्षित किया, इस फिल्म के सदाबहार गीत आज भी लोगों की जुबान पर चढ़े हुए हैं. इस फिल्म की बेशुमार ख्याति ने राज खोसला को गुरुदत्त साहब, विमल रॉय, हृषीकेश मुखर्जी, आदि के बराबर लाकर खड़ा कर दिया था. 'वो कौन थी' फिल्म आज भी देखी जाती है, महान निर्देशक महबूब खान साहब ने इस फिल्म के प्रीमियर पर राज खोसला की तारीफ़ करते हुए कहा था "राज खोसला तुम्हारी फिल्म मेकिंग के चर्चे पूरी फिल्मी दुनिया में गुंजायमान हो रहे हैं ख़ासकर सस्पेंस, थ्रिलर फ़िल्मों की तुम्हारी शैली तुम्हें हिंदी सिनेमा में सबसे खास बनाती है. तुम्हें अगर कहा जाए कि तू तो हिचकॉक का भी बाप है तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी".इस तरह की तारीफ़ महबूब खान साहब से उस दौर में सुनना राज खोसला के लिए ऑस्कर पुरस्कार से कम नहीं थी.. हालाँकि यह सब उनकी बुद्धिमता, प्रतिभा का प्रतिफल था.
देव साहब की कालजयी फिल्म गाइड फिल्म पहले चेतन आनन्द निर्देशन करने वाले थे, लेकिन वो फिल्म हकीकत में व्यस्त हो गए. फिर देव साहब ने यह जिम्मेदारी राज खोसला की दे दिया, लेकिन वहीदा रहमान ने काम करने से मना कर दिया, क्योंकि वो राज खोसला के साथ काम न करने की कसम खा चुकीं थी. लिहाज़ा राज खोसला ने खुद को फिल्म से अलग कर लिया. फिल्म ‘सोलवां साल’ में एक बोल्ड सीन करने से मना कर देने वाली वहीदा रहमान को राज खोसला ने कहा था "फिर तो आपको फ़िल्मों में नहीं आना चाहिए था, तब उन्होंने गुरुदत्त साहब से बाकायदा लिखित लिया था कि मैं अपनी मर्जी के कपड़े पहनना पसंद करूंगी.. यहीं से दोनों के मतभेद हो गए थे, और रास्ते भी अलग थे. बार - बार राज खोसला के मानने के कारण आख़िरकार तब वहीदा रहमान ने सनी देओल, धर्मेंद्र की प्रमुख भूमिका वाली फिल्म ‘सनी’ में साथ काम किया, जो राज खोसला की अंतिम प्रदर्शित फिल्म थी.
राज खोसला अपनी फ़िल्मों में कहानी के साथ - साथ गीत - संगीत पर बहुत ध्यान देते थे. उनकी फ़िल्मों में बेहतरीन संगीत को सुनते हैं तो देवानंद साहब, गुरुदत्त साहब के जैसे कालजयी संगीत मिलता है, खासकर शस्त्रीय संगीत, भी उनकी फ़िल्मों में झलकता है. मेरा साया, वो कौन थी, कालापानी, सीआईडी, आदि फ़िल्मों में संगीत फ़िल्मों में जान डाल गया... राज खोसला की फ़िल्मों में संगीत प्रेमियों के लिए बहुत कुछ है. उनकी फ़िल्मों के गीत आज भी कर्णप्रिय बने हुए हैं, उसके पीछे गहन शोध, उनकी फिल्म मेकिंग, गुरुदत्त साहब, एवं देव साहब की तरह प्रतिभाशाली संगीतकारों को मौके दिए. आज भले ही राज खोसला को महान निर्देशकों में न गिना जाता हो, लेकिन आज भी उनकी फ़िल्मों के प्रभाव एवं कालजयी संगीत से कोई बच नहीं सकता. यह बात सोचकर अज़ीब लगता है कि राज खोसला की फिल्म मेकिंग पर ज्यादा चर्चा नहीं होती. राज खोसला ने एक से बढ़कर एक फ़िल्मों का निर्माण किया. कालापानी, सीआईडी, वो कौन थी, मेरा साया, मेरा गांव मेरा देश, कच्चे धागे, दो रास्ते, दोस्ताना, मैं तुलसी तेरे आंगन की' एक मजबूत विषय पर बनी फिल्म को कैसे भूल सकता है? एक मां जो मरे हुए पति के गौरव सम्मान को याद रखते हुए नाजायज कहलाए जा रहें अपने बेटे की परवरिश समाज के तानों को ठुकराते हुए भी करती हैं. कहते हैं कि इस फिल्म को राज खोसला ने अपनी निजी ज़िन्दगी पर उतार दिया था.
31 मई 1935 को जन्मे राज खोसला 09 जून, 1991 को इस फानी दुनिया से रुख़सत कर गए. राज खोसला जैसे लोग कभी मरते नहीं हैं, वो अपनी प्रतिभा से अपनी दुनिया रच जाते हैं. आज भी फिल्म मेकिंग सीख रहे बच्चों के लिए राज खोसला की फ़िल्में अपने आप में पूरा का पूरा पाठ्यक्रम हैं. महान फ़िल्मकार राज खोसला को मेरा सलाम...
दिलीप कुमार
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