'ग्लोबल स्टार महान सत्यजीत रे'

ग्लोबल स्टार महान सत्यजीत रे 

(मानिक दा) 

अगर आपने सत्यजीत रे की फिल्में नहीं देखी तो इसका मतलब है कि आप दुनिया में सूरज या चांद को देखे बिना जी रहे हैं. ये शब्द विश्व सिनेमा के सबसे महान फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा के हैं. भारतीय सिनेमा को सत्यजीत रे ने ही पूरी दुनिया में पहुंचाया. वे ऐसे पहले भारतीय हैं, जिन्हें अकादमी अवार्ड्स की कमेटी ने अपने प्रोटोकॉल में बदलाव करते हुए लाइफटाइम अचीवमेंट का ऑस्कर पुरस्कार कोलकाता में उनके घर आकर दिया था. सत्यजीत रे दूसरे ऐसे फ़िल्मकार थे जिन्हें चार्ली चैप्लिन के बाद ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी ने ‘डॉक्टरेट’ की मानद उपाधि से सम्मानित किया था. सिनेमा की दुनिया में उन्हें 'मानिक दा' के नाम से जाना जाता था . सत्यजीत रे का सिनेमा कभी भी पुराना नहीं हो सकता. आज भी सिने प्रेमी सोचते हैं कि वर्ल्ड सिनेमा कहाँ से देखना शुरू करें! यूँ तो सिने प्रेमियों को सत्यजीत रे की फ़िल्मों से देखना शुरू करना चाहिए, लेकिन सत्यजीत रे आज भी बौध्दिक सिने प्रेमियों से ज्यादा व्यवहारिक नहीं है. अतः विश्व सिनेमा की ओर ध्यान जाता है. उसमें नाम थोड़ा कठिन हैं! सीरियस सिनेमा, विश्व सिनेमा, आर्ट फिल्म्स, फ्रेंच सिनेमा, इटालियन सिनेमा, रीजनल सिनेमा जैसी कठिन शब्दावली सुनकर कन्नी काट जाते हैं. अधिकांश दर्शक इस ओर रुख ही नहीं करते. और यही धारणाएं सत्यजीत की फ़िल्मों को लेकर है तो फिर सिनेमाई समझ बिल्कुल खराब है, सत्यजीत रे यथार्थ सिनेमा बनाते थे, वो स्टुडियो में गांव नहीं बनाते थे, बल्कि गांव को ही स्टूडियो बना देते थे. महान सत्यजीत रे की फ़िल्मों की रियल लोकेशन शूटिंग उनकी फ़िल्मों को और अधिक हक़ीक़त के पास ले जाती हैं. सत्यजीत रे की फ़िल्में देखने से एक दृष्टिकोण पैदा होता है, वो दृष्टिकोण आउट स्मार्ट बनाता है. 
सत्यजीत रे का सिनेमा हमेशा प्रासंगिक रहेगा. साल 2007 में बेस्ट एंडरसन की आई फिल्म 'द' दार्जिलिंग लिमिडेट' की मुख्य धुन सत्यजीत रे की धुन है, और सुनते हुए लगता नहीं है कि यह धुन इतनी पुरानी हो सकती है, यह धुन बार - बार सुनने का मन होता है. बेस्ट एंडरसन सत्यजीत रे को जितना बड़ा फ़िल्मकार मानते थे, उससे कहीं अधिक महान संगीतकार मानते थे. आज के दौर में ब्लैक & व्हाइट फ़िल्मों को देखने का पेसेंस नहीं है, उन्हें अप्पू ट्रेलजी देखना चाहिए फ़िल्म जेहन में कैद हो जाएगी. जिन्हें ब्रिटिश सिरीज आकर्षित करती हैं उन्हें जॉय बाबा फेलुनाथ देखना चाहिए. जिन दर्शकों को लगता है भारतीय इतिहास हार्ड कोर इन्वेंट पर मुकम्मल फ़िल्में नहीं बनी उन्हें फिल्म 'आशानी संकेत' ज़रूर देखना चाहिए, यह फिल्म बंगाल में 1943 में पड़े अकाल पर बनाई गई थी, जिसमें लाखों लोग मारे गए थे. इस भीषण मौत के तांडव की वेदना को सत्यजीत रे ने सिल्वर स्क्रीन पर उतार दिया था. आज की पीढ़ी को लगता होगा कि प्रगतिशील लोगों का पहले अकाल था, या पहले ऐसे फ़िल्मकार नहीं थे, जो फेमनिज्म पर फ़िल्में बनाते नहीं थे उन्हें सत्यजीत रे की फिल्म 'महानगर' देखना चाहिए. ऐसे तो उनकी महानतम फ़िल्मों की सूची बड़ी लम्बी है. 

2 मई 1921 को कलकत्ता में पैदा हुए सत्यजीत रे का शुरुआती जीवन कठिनाइयों तमाम तरह के आभाव में गुज़रा. पिता की बचपन में ही मौत हो गई थी. प्रेसीडेंसी कॉलेज से अर्थशास्त्र पढ़ने के बाद वे शांति निकेतन गए. पांच साल रहकर 1943 में कोलकाता लौटे. सत्यजीत रे के गुरु उनसे नाराज हो गए थे. दरअसल सत्यजीत रे अँग्रेजी में बहुत अच्छे थे, तो प्रो. सेन गुप्ता को लगता था कि यूनिवर्सिटी में टॉप करने वाले सत्यजीत रे बढ़िया इंग्लिश पढ़ाएंगे, लेकिन सत्यजीत रे विज्ञापन की कंपनी में नौकरी करने लगे, उनके गुरु की नाराजगी तब तक चली जब तक उन्होंने पाथेर पांचाली नहीं देख ली. उन्होंने कई मशहूर किताबों के कवर पेज भी डिजाइन किए, जिनमें जवाहरलाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ भी शामिल है. सत्यजीत रे ने अपने दोस्तों के साथ मिल कर 1947 में कलकत्ता फिल्म सोसायटी बनाई थी, जहां वो अपने दोस्तों के साथ बंगाली सिनेमा एवं विश्व सिनेमा पर आलोचनात्मक विमर्श करते थे. उस दौर में बंगाली दर्शकों में अपने सिनेमा के प्रति अभूतपूर्व सम्मान हासिल था. जिसके कारण सत्यजीत रे को खूब विरोध भी झेलना पड़ता था. बंगाली सिनेमा के लोगों में बातेँ फैल गईं थीं कि यह युवा अपने दोस्तों के साथ बंगाली सिनेमा को बर्बाद करने का सपना देखता है, अपने दोस्तों के साथ बैठकर खुलकर बंगाली सिनेमा की बुराई करता है. एक बार सत्यजीत को इस कदर का विरोध सहना पड़ रहा था, एक बार वो अपने दोस्तों के साथ एक सोसायटी में फ़िल्मों पर आलोचनात्मक विमर्श कर रहे थे, तब मकान मालिक ने यह कहकर निकाल दिया था कि हम फिल्मी लोग हैं, आप हमारे घर की पवित्रता खराब कर रहे हैं. आज इतिहास गवाह है यही महान सत्यजीत रे बंगाल, एवं भारत सहित पूरी दुनिया की सिनेमा की महान विरासत के रूप में याद किए जाते हैं.

सत्यजीत रे ज़िन्दा रहते हुए ही किंवदंतियों में शुमार थे. पूरी दुनिया में लोकप्रिय 'द' गॉड फ़ादर जैसी सीरीज बनाने वाले महान फ़िल्मकार 'फ्रांसिस फोर्ड कोपोला' सत्यजीत रे के बड़े दीवाने थे. कोपोला ने सत्यजीत रे की फ़िल्मों एवं उनकी शख्सियत पर स्टडी किया था. फ्रांसिस कहते हैं "हम भारतीय सिनेमा को सत्यजीत रे की फ़िल्मों के जरिए ही जानते हैं, उनकी सबसे बेहतरीन फिल्म देवी थी, देवी फिल्म सिनेमा इतिहास में मील का पत्थर है. कोपोला ने जब 'द' गॉड फ़ादर फिल्म बनाई थी तो सत्यजीत रे ने कोपोला को फोन किया और तारीफ़ करते हुए कहा " अल्पचीनो इस सीरीज की खोज हैं, और कोई भी मर्लिन ब्रांडों का किरदार दूसरा कोई भी नहीं कर सकता. देखा जाए तो फ़िल्मों के इस महान फ़िल्मकार ने निर्देशन की औपचारिक कोई शिक्षा नहीं ली, लेकिन वो फिल्म देखकर बता देते थे कि किस फिल्म को किस स्टुडियों में एवं यह निर्देशन किसका है. सत्यजीत रे को यह भी पता चल गया था कि एक फिल्म को पर्दे पर मुकम्मल करने में एक अदाकार, स्टुडियो से ज्यादा निर्देशक का कार्य प्रमुख होता है.

 सन 1950 अप्रैल में अपनी पत्नी के साथ इंग्लैंड गए. उन्हें उनकी कम्पनी ने अग्रिम प्रशिक्षण के लिए लंदन भेजा था. कम्पनी ने सोचा कि सत्यजीत रे जब लौटेंगे तो हमारी कम्पनी के प्रमुख एडमिन बनेंगे. एवं हमारे लिए चाय - बिस्किट के लिए विज्ञापन बनाएंगे, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था, नियति सत्यजीत रे को महान फ़िल्मकार बनाना चाहती थी. इस यात्रा ने सत्यजीत रे को बदल कर रख दिया था. लन्दन में उनकी लिंड्से एंडर्सन और गाविन लम्बर्ट से मित्रता हुई और उन्होंने अपने साढ़े चार माह के प्रवास के दौरान लगभग सौ फ़िल्में देखीं. जिनमें बाइसिकिल थीवस तथा अन्य इतालवी नव-यथार्थवादी फ़िल्में शामिल थीं. जिन्होंने सत्यजित रे के ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा. तब ही उन्होंने पाथेर पांचाली बनाने का सोचा था. यहीं से भारत वापस लौटते समय ही उन्होंने पाथेर पांचाली की पटकथा लिखना शुरू किया. सन् 1952 में भारत के पहले अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव का आयोजन हुआ जिसमें उन्होंने एक बार फिर इतालवी नव-यथार्थवादी फ़िल्मों से साक्षात्कार किया. साथ ही जापान सहित अन्य देशों की फ़िल्मों भी उन्होंने देखीं थीं.

सत्यजीत रे को हिन्दी सिनेमा में दो ऐक्टर बहुत पसंद थे, नसीरुद्दीन शाह, नाना पाटेकर, सत्यजीत रे अमिताभ बच्चन को पसंद करते थे, लेकिन उनके साथ काम करने के सवाल पर कहते थे "मैं अमिताभ बच्चन को बहुत पसंद करता हूँ, लेकिन मैं बंगाली फ़िल्में ही बनाता हूं. सत्यजीत रे की कल्ट क्लासिकल फिल्म उनकी सफलता की कहानी कहती है. कल्ट फिल्म पाथेर पांचाली की सफलता के बाद ही हुआ कि सत्यजीत रे ने, जिन्हें फ़िल्म निर्माण के दौरान कुछ महीनों की छुट्टी प्रदान की गई थी. आख़िरकार सत्यजीत रे ने डी.जे. केमर एंड कंपनी की अपनी नौकरी छोड़ दी. विज्ञापन में उनकी रुचि पूरी तरह कभी भी समाप्त नहीं हुई. सत्यजीत अपनी फ़िल्मों के लिए विज्ञापन खुद ही तैयार करते थे. सत्यजीत रे अपनी अधिकांश फ़िल्मों में निर्देशन, पटकथा लेखन, म्युजिक, कवर डिजायन, कैमरा हैंडलिंग, के साथ साथ एडिटिंग भी खुद करते थे. पाथेर पांचाली की सफ़लता के बाद सत्यजीत रे अक्सर कहा करते थे उन्होंने फ़िल्म निर्माण फ़िल्में देखकर सीखा. जो बातें फ़िल्में नहीं सिखा पाईं वे उन्होंने काम के दौरान प्रैक्टिकल सीखा. 'पाथेर पांचाली' को सन 1956 में केन्स में एक पुरस्कार दिया गया था, पर वास्तव में सन् 1957 में 'वेनिस महोत्सव' में 'अपराजितो' को मिला ग्रांड प्राइस पुरस्कार ही था जो पाथेर पांचाली को अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में कामयाबी मिली. न्यूयार्क में पाथेर पांचाली सितंबर साल 1958 से पहले रिलीज़ नहीं हो पाई.

सत्यजीत रे जीनियस इंसान थे. पाथेर पांचाली के निर्माण के पीछे भी एक किस्सा है. सत्यजीत रे किताबों के कवर तो डिजायन करते ही थे. सत्यजीत जब सिग्नेट प्रेस के साथ काम करते थे, तो उन्हें एक आम अंतीर भेपू शीर्षक का कवर डिजायन करना था, यह बच्चों के लिए बनाया गया था. तब इसके चित्र एवं कवर सत्यजीत रे इससे बहुत प्रभावित हुए, इसके बाद उन्होंने इसे अपनी फिल्म का संदर्भ बनाया. सत्यजीत रे कितने विश्वविख्यात थे, इसका दायरा बहुत बड़ा है, इसे समझने के लिए महान फ़िल्मकार बेस्ट एंडरसन को कि फ़िल्में देखने पर महान सत्यजीत रे की झलक मिलती है. बेस्ट एंडरसन की फ़िल्में विश्व भर के फिल्म फेस्टिवल में दिखाई जाती हैं. साल 2007 में 'द' दार्जिलिंग लिमिटेड में एंडरसन ने सत्यजीत रे की कंपोज की हुई धुनें उतार दी थीं. बेस्ट एंडरसन ने हमेशा से ही सत्यजीत रे की फ़िल्मों की धुनें, कुछ सब्जेक्ट को उठाया है, जैसे पाथेर पांचाली, तीन कन्या, जल सागर, देवी अपराजितो, चारुलता, कंचनजंघा की धुनें उठाई थीं. सत्यजीत रे सादगीपूर्ण ज़िन्दगी के हिमायती थे, वैश्विक फ़िल्मकार होते हुए भी किराए के मकान पर रहते थे. 

सत्यजीत रे की सिनेमाई समझ का मयार बहुत ऊंचा था. गांधी जैसी महान ऑस्कर विनिंग फिल्म बनाने वाले फ़िल्मकार सर रिचर्ड एटनबरो भी सत्यजीत रे के दीवाने थे. वो फिल्म बनाने से पहले भारत आए थे. वो सत्यजीत रे की महान फिल्म शतरंज के खिलाड़ी में सर रिचर्ड ने जनरल जेम्स का किरदार निभाया था. सर रिचर्ड सत्यजीत रे को मानिक दा कहकर पुकारते थे. सर रिचर्ड जब भारत से गए तो सत्यजीत रे के भक्त बन चुके थे. सर रिचर्ड सत्यजीत रे के लिए कहा "मानिक दा के बारे में एक अद्वितीय बात बताना चाहूँगा, कि वो फिल्म मेकिंग के सारे काम खुद करते थे, जो काम अलग - अलग लोग करते हैं, मानिक दा, म्युज़िक कम्पोज, निर्देशन, कैमरा, एडिटिंग, जैसे सारे काम करते थे, सेट पर लाइटिंग कैसे होगी. वो हर काम करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे महान चार्ली चैप्लिन करते थे. स्क्रीन प्ले आदि मे जो दिखता है वो सब उन्ही का कमाल होता है. सत्यजीत रे को स्क्रिप्ट लेखन का ज्ञान हुआ उसके पीछे भी उनकी रिसर्च थी. दरअसल सत्यजीत रे ने अपने जीवन में पहली स्क्रिप्ट रेनी क्लेयर की ब्रिटिश फिल्म 'द घोस्ट गोज वेस्ट' की इस फिल्म की स्क्रिप्ट उन्होंने सेकेंडहैंड खरीदा था. सत्यजीत रे इस स्क्रिप्ट को अपने लिए कीमती मानते थे. 

सत्यजीत रे ने फिल्म आशानी संकेत' से स्क्रिप्ट लेखन शुरू किया था. फिल्म बंगाल अकाल पर बनाई गई थी. इस फिल्म में एक किरदार होता है जोदू (जादू) जोदू का चेहरा जला हुआ होता है, चेहरा इतना जला होता है कि कोई भी महिला उसे देख ले तो डर जाए... दरअसल उसके पास चावल होते हैं, तो एक सुन्दर महिला को भूख सताती है. वो जोदू से चावल मांगती है, लेकिन जोदू (जादू) तो ख़ैर एक आदमी ही था वो उस महिला से चावल देने के बदले शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए कहता है, लेकिन वो महिला मना कर देती है. फिर बाद में मान जाती है. इस फिल्म में जोदू का जला चेहरा देखकर एक बहुत बड़े डॉ. द्रवित होते हैं और फिल्म के हीरो सौमित्र चटर्जी को फोन करते हुए कह्ते है "मुझे जोदू से मिलना हैं, मैं उसका जला चेहरा ठीक करना चाहता हूं" तब सौमित्र ने कहा "डॉ साहब यह सत्यजीत रे का कमाल है इस तरह से उन्होंने उसे सजाया, वो बिल्कुल सही है. सत्यजीत रे को कलकत्ता से बहुत ज्यादा प्यार था. बहुत शिक्षित, अच्छी-खासी अँग्रेजी बोलने वेस्टर्न कल्चर का ज्ञान होने के बाद भी सत्यजीत रे ने कभी भी कलकत्ता से बाहर काम नहीं किया. वो हमेशा से ही कलकत्ता में ही रहना चाहते थे वो कहते थे "मेरी जड़ें कोलकाता में ही हैं अगर मैं जड़ छोड़कर कहीं बाहर जाऊँगा तो शायद बाहर मैं ज्यादा खुश नहीं रह पाउंगा. भारत के दूसरे राज्यों में शायद मैं काम भी कर सकता हूं. ऐसा नहीं है कि मैंने हिन्दी फ़िल्में नहीं बनाई, लेकिन मैं जब बंगाली फ़िल्मों का निर्माण करता हूँ तो शायद ज्यादा आत्मविश्वास के साथ काम करता हूँ जो मुझे खुशी देता है. मैं कलकत्ता के बाहर रहने की सोच भी नहीं सकता यहां तक कि बंबई में भी वहाँ मैं अपनी रचनात्मकता खो कर एक बेकार इंसान बन जाऊँगा. सत्यजीत ने एक साक्षात्कार में कहा "मुझे लगता है मैं अमीर हूं, फ़िल्मों नहीं अपनी राइटिंग के कारण, मैं पैसे की चिंता नहीं करता, मैं निश्चित रूप से बंबई के फ़िल्मकारों जितना अमीर नहीं हूं. फिर भी मैं आराम से ज़िन्दगी जी सकता हूँ, मुझे कुछ नहीं चाहिए मुझे कुछ रिकॉर्डस एवं किताबें खरीदने के लिए पैसे की कमी न हो मुझे जो चाहिए".

अज़ीब बिडम्बना है कि सत्यजीत रे की महान फ़िल्में देखकर भारत सहित दुनिया भर के फ़िल्मकार जिन्हें अपना आदर्श मानते हैं. उनकी महान फ़िल्में ऑस्कर में नहीं भेजी गईं. कारण यह बताया गया है इन फिल्मी में भारत की गरीबी दिखाई गई है. सत्यजीत रे को 32 बार नेशनल अवार्ड मिले थे, यह भी अपने आप में एक अनूठा रिकॉर्ड है. महान फ़िल्मकार 'मार्टिन स्कॉरसेजी' कहते हैं कि मैं 14 साल का था जब मैंने पाथेर पांचाली देखी और मैं आश्चर्यचकित हो गया था. मार्टिन स्कॉरसेजी' कहते हैं "मैं कामगार परिवार से आता हूं, मेरे घर में किताबें वगैरह नहीं होती थीं. अतः मुझे भारतीय संस्कृति का ज्ञान नहीं था मैंने भारत को इसी के जरिए जाना था. एक अमेरिकी परिवार से होने के बाद भी मैं भारतीयों के साथ खुद को जोड़ कर देख पाया यह करिश्मा सत्यजीत रे का ही था. सत्यजीत रे की कभी भी कोई फिल्म ऑस्कर में नॉमिनेट नहीं हुई, लेकिन सन 1992 में सत्यजीत रे को स्पेशल ऑस्कर लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था. सत्यजीत रे बीमार हस्पताल में ईलाज करवा रहे थे, अवार्ड लेने नहीं जा सकते थे अतः अवॉर्ड के नियम में बदलाव किया गया, अवॉर्ड उनके पास चलकर खुद आया था. अवॉर्ड देने आए कर्मचारियों ने सत्यजीत रे की क्लिप संदेश बनाकर ले गए थे. उसे ऑस्कर समारोह में दिखाया गया था. एक बार अमेरिका के दिग्गज फिल्मकार बिली वाइल्डर की फिल्म 'डबल इनडेम्निटी' सत्यजीत को बहुत पसंद आई, जिसके बाद उन्होंने बिली को 12 पेज का पत्र लिखकर भेजा. दुःखद बिली की तरफ से कोई जवाब नहीं आया. लगभग 40 साल बीत जाने के बाद रे को जब ऑस्कर मिला तो उन्होंने अपनी स्पीच में बिली को लिखे पत्र का जिक्र किया. उन्होंने कहा कि उन्होंने बिली को खत लिखा था जिसका कभी जवाब नहीं आया. सत्यजीत की स्पीच के बाद हॉलीवुड के दिग्गजों ने खड़े होकर तालियां बजाई थीं. बिली को जब ये ज्ञात हुआ तो उन्होंने राय के घर एक एयरमेल भेजा, जिसमें उन्होंने रे से माफी मांगी. वे उनके पत्र का जवाब नहीं दे पाए. ऑस्कर मिलने के बाद ही भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया. लम्बी बीमारी के बाद 23 अप्रैल 1992 को इस फानी दुनिया से रुख़सत कर गए. सत्यजीत रे आज शारीरिक रूप से नहीं है अतः ज्यादा चर्चा लोग करते नहीं है, मैंने ऐसे पढ़ा है कि उनके देहांत के बाद कोलकाता की गलियों में लोगों का हुज़ूम उमड़ा था. कोलकाता में आज भी सत्यजीत रे का मुकाम टैगोर, जैसा ही है. महान सत्यजीत (मानिक दा) को मेरा सलाम.......... 

दिलीप कुमार

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