'फर्स्ट लेडी ऑफ हिन्दी सिनेमा देविका रानी'

'फर्स्ट लेडी ऑफ हिन्दी सिनेमा '

(देविका रानी) 

'देविका रानी' हिन्दी सिनेमा की पहली नायिका थीं, जो अपने युग से बहुत आगे की सोच रखने वाली फ़िल्मकार थीं. अपनी फ़िल्मों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ियों और को चुनौती देते हुए मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं को स्थापित किया. हिन्दी सिनेमा में जब महिलाएं काम नहीं कर सकतीं थीं, फ़िल्मों में काम करना तो बहुत बड़ी बात थी, उस दौर में महिलाएं, ल़डकियों को अधिकाशं घूंघट में घुट घुट कर जीना पड़ता था, अधिकांश पुरुष ही महिलाओं की भूमिका अदा करते थे. तब नारी सशक्तिकरण के रूप में सबसे बड़ा उदाहरण 'देविका रानी' भी हैं. जिनका नाम भारत सहित दुनिया भर की महिलाओं के लिए एक प्रेरणा है, कि महिलाएं अपना नाम कैसे स्वर्ण अक्षरों में लिख सकतीं हैं.देविका रानी से पहले भी गिनी-चुनी महिलाएं फ़िल्मों में काम करतीं थीं, लेकिन 'देविका रानी' हिन्दी सिनेमा की पहली हिरोइन रहीं हैं. 'देविका रानी' को फर्स्ट लेडी ऑफ हिन्दी सिनेमा भी कहा जाता है. इस टाइटल से उनकी अनोखी शख्सियत को समझा जा सकता है. 

हमारा समाज अपने एक विशेष प्रकार के बनाए मानक, एक ढर्रे पर चलता है. अलग राह पर चलने वालों को ज्यादातर नकार दिया जाता है, सबसे पहले घर वालों द्वारा नकारा जाता है. हमारे समाज में महिलाओं के लिए कोई खास गुंजाईशे नहीं थीं, अपने सपनों को पूरा करने उन्हें पँख देने से पहले ही कुतर दिए जाते थे. 'देविका रानी' जब फ़िल्मों में आईं तब तक तो पारिवारिक घरों के लड़के भी काम नहीं करते थे, वही लड़के काम करते थे, जिनमे बगावत की आग थी. देविका रानी ने सबसे पहले अपने घर वालों से बगावत की तब कहीं फ़िल्मों का रास्ता बना था. उस दौर के भारत में यह बहुत बड़ी घटना थी. 

महान अदाकारा 'देविका रानी' का जन्म 30 मार्च 1908 को आंध्रप्रदेश के वाल्टेयर में हुआ था. उनके पिता कर्नल एम.एन. चौधरी समृद्ध बंगाली परिवार से ताल्लुक रखते थे. 'देविका रानी' के पिता भारत के प्रथम सर्जन जनरल नियुक्त हुए थे. 'देविका रानी की शिक्षा ब्रिटेन में हुई थी. एक य़ह भी कारण रहा है कि देविका वैचारिक रूप से उदारवादी थी. अपने विद्यार्थी जीवन दौरान ही देविका का रुझान अदाकारी की तरफ होने लगा. उन्होंने फिल्मी दुनिया में कॅरियर बनाने का सोचा. लेकिन उनके घर वाले नहीं चाहते थे कि वे मनोरंजन की दुनिया में कदम रखें. परिवार की मर्जी के खिलाफ 'देविका रानी' ने अभिनय में पारंगत होने के लिए इंग्लैंड में रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट में अभिनय की पढ़ाई की. इसके बाद उन्होंने वास्तुकला में डिप्लोमा भी हासिल किया. इस बीच बुस्र बुल्फ नामक फिल्म निर्माता उनकी वास्तुकला की योग्यता से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने देविका को अपनी कंपनी में बतौर डिजाइनर नियुक्त कर लिया. डिजाइनर के तौर पर काम करने के दौरान देविका की मुलाकात एक बार फिल्म निर्माता हिमांशु राय से हुई. हिमांशु देविका रानी की सुंदरता से काफी प्रभावित थे. उन्होंने ​देविका को अपनी फिल्म ‘कर्म’ में काम करने का प्रस्ताव दिया. किरदारों की दुनिया में आने की इच्छुक 'देविका रानी'ने भी इस प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया. 

'हिमांशु राय जब 1933 में फिल्म कर्मा का निर्माण किया , तो फिल्म में हिमांशु खुद हीरो थे. हिमांशु ने अपनी नायिका के रूप में' देविका रानी' को चुना. इस फिल्म में देविका रानी' की अंग्रेजी संवाद अदायगी को देखकर दर्शक अचंभित हो गए थे. उनके व्यक्तिव को देखकर दर्शक इस कदर प्रभावित हुए कि उनकी गिनती बोलती फिल्मों की श्रेष्ठतम नायिकाओं में होने लगी. हिमांशु राय से शादी के बाद' देविका रानी' बंबई आ गईं. हिमांशु राय एवं देविका रानी ने मिलकर बांबे टॉकीज की स्थापना की और फिल्म 'जवानी की हवा' बनाई. 1935 में प्रदर्शित देविका रानी अभिनीत फिल्म सुपरहिट हुई. बाद में देविका ने बांबे टॉकीज के बैनर तले बनी कई फिल्मों में अभिनय किया. इन फिल्मों में से एक फिल्म अछूत कन्या थी. 

अभिनेत्री 'देविका रानी' की दोस्ती सरोजिनी नायडू से भी हुआ करती थी. साल 1936 में आई फिल्म ‘अछूत कन्या’ में देविका रानी का किरदार काफी उम्दा था. उस दौर में खूब लोकप्रिय हुआ था. उन्होंने दलित लड़की का किरदार निभाया था, जिसे एक उच्च जाति के लड़के से प्यार हो जाता है. सरोजनी नायडू को यह फिल्म काफी पसंद आई थीं जिसके बाद उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को इस फिल्म को देखने का सुझाव दिया था, पहले जवाहरलाल नेहरू यह फिल्म नहीं देखना चाहते थे, जब उन्होंने यह फिल्म देखा उन्हें यह फिल्म बहुत पसंद आई . पंडित जवाहर नेहरू इस फिल्म से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इस फिल्म को देखने के बाद फैन लेटर लिखा और साथ ही उन्होंने देविका रानी को पद्मश्री से भी सम्मानित किया था. उनकी इस फिल्म के बाद से ही उन्हें काफी अधिक लोकप्रियता हासिल हुई थीं.

यूँ तो ऐसी जिन्दगियों के बारे में लोगों की धारणाएं बदलती रहती हैं. 'देविका रानी' का ताल्लुक गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के ख़ानदान से भी बताया जाता है. 'देविका रानी' ने बहुत कम काम किया. दस वर्ष के अपने फ़िल्मी कैरियर में कुल 15 फ़िल्मों में ही काम किया, लेकिन उनकी हर फ़िल्म को क्लासिक फिल्म का दर्जा हासिल है. सिनेमैटिक लिहाज से उनकी प्रत्येक फिल्म सिलेबस है. विषय की गहराई और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी उनकी फ़िल्मों ने अंतरराष्ट्रीय और भारतीय फ़िल्म जगत में नए मूल्य और मानदंड स्थापित किए. हिंदी फ़िल्मों की पहली स्वप्न सुंदरी और ड्रैगन लेडी जैसे विशेषणों से अलंकृत देविका रानी को उनकी ख़ूबसूरती, शालीनता धाराप्रवाह अंग्रेज़ी और अभिनय कौशल के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जितनी लोकप्रियता और सराहना मिली उतनी कम ही अभिनेत्रियों को नसीब हो पाती है. हिन्दी सिनेमा को बुलन्दियों तक पहुचानें में 'देविका रानी' का अहम योगदान है. अपने दौर में 'देविका रानी' जर्मन सिनेमा से काफी ज्यादा प्रभावित थीं. 'देविका रानी' मार्लिन डीट्रिच को वह फॉलो करती थीं. उनकी अभिनय में रुचि को देखते हुए और हिन्दी सिनेमा को एक अलग मुकाम तक पहुचाने के लिए उन्हें 'ड्रैगन लेडी' का खिताब दिया गया था.जिस दौर में महिलाओं को घर से निकलने नहीं दिया जाता था, देविका फिल्म नायिका बनकर समाज के लिए उदाहरण बन गई थी. उन्होंने ही भारतीय सिनेमा को वैश्विक स्तर पर ले जाने का काम किया था. उनके अभिनय की तुलना ग्रेटा गार्बो से की गई थी इसलिए उन्हें 'इंडियन गार्बो' भी कहा जाता था. 

आज के दौर में किसिंग सीन आम बात हो गई है, क्योंकि बदलते हुए दौर में सिनेमा भी बदल जाता है. हालाँकि आजादी से पहले किसिंग सीन क्या मुमकिन था?? पुरानी फ़िल्मों में जब किसिंग सीन दिखाया जाता था, तो अक्सर दो फूलों को आपस में मिलते दिखाया जाता था. तब दर्शक यह मान लेते थे कि हीरो हिरोइन के बीच किसिंग सीन चल रहा है . यानि यह वह दौर था जब किसिंग सीन के बारे में सोच पाना भी निर्देशक के लोहे के चने चबाने जैसा था . तब किसी एक्ट्रेस को इसके लिए मनाना बहुत बड़ी बात थी, बड़ी बात यह है कि कोई किसी से भी क्यों कहेगा?? कहना भी मुश्किल था! लेकिन उस दौर पर एक ऐसी अभिनेत्री हुईं, जिसने ​फूलों के किसिंग वाली परम्परा को तोड़ा और पर्दे पर किसिंग सीन दिया, जिसे फिल्मी दुनिया का पहला लिपलॉक सीन माना जाता है. देविका रानी बहुत शिक्षित बेपरवाह अभिनेत्री थीं. देविका रानी की, विगत 9 मार्च को पुण्यतिथी थी. 

आज भले ही तीन पीढ़ियों के सबसे बड़े सुपरस्टार हों, लेकिन दिलीप कुमार को सिल्वर स्क्रीन पर जन्म किसने दिया! पुणे की एक कैंटीन में काम करते थे, यहीं देविका रानी की पहली नज़र उन पर पड़ी और उन्होंने दिलीप कुमार को अभिनेता बनने का मौका दिया. देविका रानी ने ही 'युसूफ़ ख़ान' की जगह उनका नया नाम दिलीप कुमार नामकरण किया. दिलीप कुमार को लेकर साल 1944 में देविका रानी ने फिल्म ज्वार भाटा बनायी. फिल्म सफल तो नहीं हो पायी, लेकिन हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ज्वार भाटा आज भी कालजयी फिल्म के रूप में यादगार है. दादामुनि अशोक कुमार को भी हिन्दी सिनेमा पर लेकर आने वाली प्रमुख फ़िल्मकार देविका रानी ही थीं. एवं देविका ने ही अशोक कुमार नाम दिया. मधुबाला जी का नाम पहले मुमताज होता था, लेकिन देविका रानी ने उनकी खूबसूरती से प्रभावित होकर उनका नामकरण मधुबाला कर दिया. देविका रानी का हिन्दी सिनेमा में अविस्मरणीय योगदान है, जिन्होंने अशोक कुमार, दिलीप कुमार, मधुबाला, लीला चिटनिस जैसे कोहिनूर दिए. 

देविका रानी को बहुत सारे उपनामों से बुलाया जाता था, जैसे फर्स्ट लेडी ऑफ हिन्दी सिनेमा, इंडियन गार्बो, ड्रीम गर्ल, पटरानी, जैसे टाइटल सुनकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि देविका रानी उस दौर में कितनी लोकप्रिय रही होंगी. 'देविका रानी' के साथ किस्मत ने ऐसी पलटी मारी कि फिर हिन्दी सिनेमा को पीठ ही फ़ेर लिया फिर लौटी ही नहीं. 1940 में उनके पति हिमांशु राय का असामयिक निधन हो गया इस विपदा को भी साहस के साथ झेलकर उन्होंने पति के स्टूडियो बांबे टाकीज पर नियंत्रण के लिए संघर्ष किया. हालाँकि अशोक कुमार, शशधर मुखर्जी अलग हो गए, आखिकार देविका रानी ने बाम्बे टाकीज बेच दिया. 1945 में उन्होंने रूसी चित्रकार 'स्वेतोस्लाव रोरिक' से शादी कर स्थाई रूप से उनके साथ बेंगलूर में रहने लगी. यूँ तो देविका रानी का सिनेमाई सफ़र बहुत छोटा मगर प्रभावी, सदियों तक याद रखे जाने योग्य है. उनकी जीवन यात्रा अपने आप में एक संस्थान हैं. उनकी सिनेमाई समझ एवं सफर एक पूरा का पूरा पीएचडी है. कम संसाधनो में भी उत्कृष्ट रचा जा सकता है. एक यह भी बहुत रोचक बात है कि भारतीय सिनेमा के पिता दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की स्थापना के साथ ही सिनेमा का सबसे बड़ा सम्मान पाने वाली अदाकारा रहीं हैं.....दादा साहब फाल्के की सौंवीं जयंती के अवसर पर दादा साहब फाल्के पुरस्कार की स्थापना वर्ष 1969 में की गई थी. 'देविका रानी' 9 मार्च, 1994 को इस फानी दुनिया को अलविदा कह गईं. देविका रानी जैसी अग्रणी महान फ़िल्मकार को मेरा सलाम... 

दिलीप कुमार

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