मन्थन फिल्म

"सामाजिक सुधार पर श्याम बेनेगल का सिनेमाई मन्थन"

(फिल्म मन्थन) 

श्याम बेनेगल समानांतर सिनेमा के अग्रणी शिल्पकार माने जाते हैं. इस ख्याति को प्राप्त करने के लिए उनकी अथक मेहनत एवं सरोकार को सिनेमा के धरातल पर उतारने में उनकी भूमिका अविस्मरणीय है. हिन्दी सिनेमा जब राजेश खन्ना के सुपरस्टार वाले सुपरस्टारडम एवं अमिताभ बच्चन की आँधी के पीछे अपना सामान ले कर पीछे - पीछे चल रहा था, तब श्याम बेनेगल, मन्थन जैसी कला फ़िल्मों का निर्माण कर रहे थे! दरअसल कला फ़िल्मों का निर्माण अपने आप में एक जोखिम का काम रहा है, क्योंकि मेहनत, शोध के साथ धरातल पर काम करना पड़ता है, जिससे दर्शक उस यथार्थ कहानी को बोरिंग समझकर उससे पल्ला झाड़ लेते हैं. इसीलिए समानान्तर सिनेमा को मूलतः सिनेमा कहा जाता है. 

फ़िल्मकार श्याम बेनेगल की मंथन एक ऐसी फिल्म है, जो हिन्दी सिनेमा में अपने प्रयोगों के लिए याद की जाएगी. 'मन्थन' फ़िल्म को सामूहिक 5 लाख किसानों ने मिलकर प्रोड्यूस किया था! जी हाँ यह पढ़कर पाठकों को आश्चर्य हो सकता है, कि यह क्या बात है. दरअसल यह किसानों के फण्ड पर बनाई जाने वाली फिल्म है. किसानो ने किसी तरह दो-दो रुपये बचाकर फिल्म में लगाए थे. इस फिल्म को व्यापारिक एवं समीक्षात्मक खूब सराहना मिली. फ़िल्म की सफलता में दो नैशनल अवॉर्ड ने चार चांद लगा दिए. इस नायाब फ़िल्म को ऑस्कर पुरस्कार के लिए भी भेजा गया था. फ़िल्म ‘मंथन’, श्वेत क्रांति पर आधारित थी. 1976 में आई इस फिल्म को श्याम बेनेगल ने निर्देशित किया था. श्वेत क्रांति का मतलब दुग्ध क्रांति से है, जिस संदर्भ में फ़िल्म का निर्माण किया गया था. फिल्म के निर्माण से पहले उसकी रूपरेखा पर फ़िल्मकार काम करता है, आमतौर पर जब भी कोई फिल्म बनाई जाती है तो उसके लिए स्टार्स की कास्टिंग के साथ-साथ बजट का भी प्लान किया जाता है. उस बजट के हिसाब से ही निर्माता तय करता है, कि फिल्म कैसे बनेगी किस दिशा में जाएगी. चूँकि प्रत्यक्ष रूप से इस फ़िल्म में कोई प्रोड्यूसर नहीं था, अंततः इसके आधिकारिक तौर पर प्रोड्यूसर श्याम बेनेगल ही थे. ‘मंथन’ फिल्म का निर्माण समय की मांग एवं तात्कालिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया गया था. किसानों से चंदा इकट्ठा करके फिल्म के लिए फंड इकट्टा किया गया था. यह 70 के दशक की सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक है और हिंदी सिनेमा की पहली ऐसी फिल्म है, जिसे चंदा इकट्ठा करके बनाया गया था. यह फिल्म आज भी हिन्दी सिनेमा की कालजयी फ़िल्मों में शुमार है, इस फ़िल्म को कल्ट फ़िल्मों की फेहरिस्त में शामिल किया जाए तो शायद सही होगा. 

1976 में इमर्जेंसी के दौरान रिलीज हुई ‘मंथन’ में किसानों और पशुपालकों के संघर्ष को बड़े ही मार्मिक अंदाज में फिल्मी पर्दे पर उतारा गया था. इस फिल्म में सामजिक असंतुलन के एक - एक रेशे को खोला जाता है. ‘मंथन’ की कहानी वर्गीज कुरियन और श्याम बेनेगल दोनों ने लिखी थी. वर्गीज कुरियन को भारत में वाइट रेवॉल्यूशन यानी श्वेत क्रांति का ध्वजवाहक कहा जाता है. उन्होंने ही दूध के प्रोडक्शन में भारत को दुनिया में नंबर वन बना दिया था. वर्गीज कुरियन को मिल्क मैन भी कहा जाता है. वर्गीज कुरियन ने 1970 में ऑपरेशन फ्लड की शुरुआत की थी. जिसके कारण भारत में श्वेत क्रान्ति आ गयी. भुखमरी, बेरोज़गारी जब चरम पर थी, तब भारत पूरी दुनिया में किसी भी क्षेत्र में कोई मुकाम नहीं रखता था, चूँकि कृषि के लिहाज से भारत अग्रणी रहा है,'वर्गीज कुरियन' जैसे समाज़ सुधारक लोगों का मार्गदर्शन मिला तो दूध के उत्पादन में पूरी दुनिया में शीर्ष पर पहुंच गया था. प्रत्येक क्षेत्र में भारत विविधतापूर्ण रहा है. 'श्याम बेनेगल' और वर्गीज कुरियन ने मिलकर इस एतिहासिक सफलता को फिल्म के रूप में उतारने का फैसला किया. फिर ‘मंथन’ बनने का सिलसिला शुरू हुआ. 

चूंकि ‘मंथन’ एक कला फिल्म थी, जिसका उद्देश्य मात्र ज़न सरोकार था. श्याम बेनेगल की फ़िल्मों में अदाकारी के लिहाज से देखना एवं उस सरोकार को अपने अंदाज़ में देखना हमेशा से सर्वोत्तम रहा है. श्याम बेनेगल जैसे फ़िल्मकारों ने समाज के उस दंश को सहा होगा तब ही उसको सिल्वर स्क्रीन पर उतार पाए. फिल्म की स्टारकास्ट में गिरीश कर्नाड, कुलभूषण खरबंदा, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी, अनंत नाग और मोहन अगाशे जैसे मंझे हुए अदाकारों की फ़ौज श्याम बेनेगल ने खड़ी कर दी. चूंकि फिल्म की कहानी उन किसानों पर आधारित थी, जो गांवों में सहकारी समिति बनाने में लगे थे. ऐसे में कोई भी फ़िल्म निर्माता इस फिल्म पर पैसा लगाने के लिए तैयार नहीं था. फिल्म का बजट 10 से 12 लाख रुपये था. पैसों का कोई इंतज़ाम नहीं हो रहा था. ऐसे में सरोकार की इस कला फिल्म ‘मंथन’ बनाने का सपना कैसे पूरा हो? तब वर्गीज कुरियन और श्याम बेनेगल ने एक तरीका निकाला. उन्होंने किसानों से 2-2 रुपयों का चंदा इकट्ठा करने का फैसला किया. वर्गीज कुरियन को लोग मानते थे एवं उनकी नीतियों से परिचित थे. उन्होंने गुजरात में जो सहकारी समिति बनाई थी. उससे करीब 5 लाख किसान जुड़ चुके थे. कुरियन उस वक्त अमूल को-ऑपरेटिव के संस्थापक थे. उन्होंने किसानों से अपील की वो दूध बेचकर जो कमाते हैं, उससे 2-2 रुपये दान कर दें ताकि जो चंदा इकट्ठा हो, उसकी मदद से फिल्म बनाई जा सके और किसानों के संघर्ष एवं दर्द को पूरी दुनिया को दिखाया जा सके. जिससे लोगों को पता चले कि जो शहरों में लोगों को दूध मिलता है, वो इतनी आसानी से नहीं पैदा होता उसके लिए किसी ने अपनी ज़िन्दगी गोबर, चारे में बिता दीं एवं उनके बच्चों को शिक्षा तो दूर की कौड़ी दो वक़्त की रोटी भी नसीब नहीं. किसानों ने बात मान ली. उस वक्त कुरियन की गुजरात में बनाई सहकारी समिति से करीब 5 लाख किसान जुड़े थे. उन सभी किसानों ने अपनी कमाई से 2-2 रुपये बचाए और फिल्म ‘मंथन’ में लगा दिए. इस तरह ‘मंथन’ एक ऐसी फिल्म बन गई, जिसे 5 लाख किसानों ने फिल्म को फाइनेंस किया. श्याम बेनेगल जैसे कला फ़िल्मों के पुरोधा हमेशा ही ऐसा सिनेमा गढ़ते रहे, जिससे लोगों में चेतना का प्रसार हो. 

‘मंथन’ फिल्म तमाम मुश्किलों का सामना करने के बाद रिलीज हुई, रिलीज होते ही फिल्म हिट हुई एवं लोगों के मानस पटल पर अंकित हो गई. इसे बेस्ट फीचर फिल्म और बेस्ट स्क्रीप्ले के लिए 2 नैशनल अवॉर्ड मिले. ‘मंथन’ फिल्म को 1976 भारत की तरफ से ऑस्कर में भी भेजा गया. ‘मंथन’ की शूटिंग गुजरात के सान्गवा गांव में हुई थी. इस गांव में फिल्म के कलाकारों ने करीब 45 दिनों तक डेरा डाला था. एवं गांव को उस ज़िन्दगी को बड़े नजदीक से देखा था. तब कहीं.... फिल्म की कहानी के किरदारों को पर्दे पर उतार सके. फिल्म में गांव के रहने वाले किसानों में भी काम किया. श्याम बेनेगल उन किसानों को रोजाना 7 रुपये दिया करते थे, जो फार्म में पूरे दिन काम करने के बाद सिर्फ 5 रुपये ही कमा पाते थे. 

फिल्म ‘मंथन’ लोगों के के सामूहिक प्रयास को दर्शाती है. गुजरात के खेड़ा जिले के ‘दुग्ध क्रांति’ किसानो की सहकारिता का एक सशक्त उदाहरण है. इसी से प्रेरित यह फिल्म किसानों के पैसे से ही बनाई गई है. जिसमें उनके संघर्षों का ही प्रतिफल है. फिल्म में दूध बेचने वाले किसानों की सहकारी समिति (सोसाइटी) बनाने और उसमे आने वाली कठनाईयों को फ़िल्माया गया है. एक युवा वेडनरी डॉक्टर राव (गिरीश कर्नाड) जो मानवतावादी और समाजवादी मूल्यों को मानने वाले हैं. गांव में सोसाइटी बनाने का प्रयास करता है. लोगों को जागरूक करता है. गांव के लोग लंबे समय से एक नेता, व्यापारी अमरीश पुरी की ‘डेयरी में दूध बेचते रहे होते हैं. मगर वह उचित कीमत से बहुत कम कीमत देता रहा है. चूंकि, वह साहूकार भी है इसलिए किसान उस पर कई तरह से आश्रित हैं. संकट पैदा करके ‘सहायता’ की कूटनीति पर भी चलता है. इन सब कारणों से किसानों का उसके चंगुल से निकलना आसान नहीं था. इस फिल्म में भोला (नसीरुद्दीन शाह) जैसे लोग जो हक़ीक़त समझते हैं वो भी सशक्त रोल में हैं, लेकिन उन्हें किसी न किसी रूप में डॉ राव (गिरीश कर्नाड) की आवश्यकता होती है. फिल्म में एक कम पढ़ी लिखी विंदु (स्मिता पाटिल) जैसी साहसी महिला भी है लेकिन एक आदमी की कमी के कारण वो भी शोषित है. फिल्म में गिरीश कर्नाड सबसे सशक्त रोल में हैं, जो फिल्म में लीड ऐक्टर के तौर पर हैं. चुस्त-दुरुस्त कहानी के साथ बेह्तरीन कथानक फिल्म को कालजयी साबित करता है. 
फिल्म का क्लाईमैक्स बेहद उम्दा होता है. आज सबकुछ ज़रूरी नागरिक संसाधनो को निजी हाथों में बेचे जाने के इस क्रूर, पूंजीवाद के दौर में सहकारिता की अवधारणा अब ज़मीन पर दिखाई नहीं देती. मगर मानवीय मूल्यों एवं नागरिक अधिकारों की रक्षा सहित आम ज़न मानस आत्मसम्मान का सामजिक समानता का यही मूल रास्ता है. आज के पूंजीवाद मानसिक ग़ुलामी के दौर में इसके लिए व्यक्ति को भी अपने स्वार्थ से ऊपर व्यापक समाज के हित के बारे में सोचना होगा. अन्यथा सामाजिक द्वेष के साथ असमानता के साथ दुनिया तो चल ही रही है. आगे भी चलती रहेगी, लिहाज़ा लोगों में खुद के अधिकारों के प्रति चेतना तो हो. श्याम बेनेगल हमेश से ही ऐसी ज़नमानस की फ़िल्मों का निर्माण करते रहें हैं, ऐसी फ़िल्मों का निर्माण एक अर्थिक रूप से नुकसानदेह होता है, चूंकि एक सृजनकर्ता का काम होता है कि समाज तो उसे बहुत कुछ दे रहा है, लेकिन वो इस समाज को दे रहा है? समाज के निर्माण में सबसे ज्यादा जवाबदेही रचनाकारों, साहित्यकारों की होती है, श्याम बेनेगल जैसे समानान्तर सिनेमा के यादगार सृजनकर्ता हमेशा अपनी बेह्तरीन 'मन्थन' जैसी फ़िल्मों के कारण अमर रहेंगे..... 

दिलीप कुमार

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