गुमराह

"चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों" 

क्लासिकल फिल्म 'गुमराह' मुहब्बत एवं शायरी की दुनिया के रूहानी शख्सियत साहिर लुधियानवी की कलम से निकले नग्मे 'चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों' सुनते हुए डुबो देने वाले गीत के लिए याद की जाती है. हिन्दी सिनेमा में बहुत सारे गीत लिखे गए हैं, सैकड़ों गीत अमर हैं, लेकिन यह गीत साहिर लुधियानवी एवं अमृता प्रीतम के नमुक्कमल इश्क़ की पूरी की पूरी दास्तान है. यही वो गीत है, जिसमें साहिर लुधियानवी के निजी ज़ज्बात उमड़ पड़े थे. आज भी यह संगीत में सुकून की तलाश रहे लोगों की पहली प्राथमिकता यह गीत बना हुआ है. 

 क्लासिकल फिल्म 'गुमराह' की महानतम दादामुनि अशोक कुमार सुनील दत्त, माला सिन्हा के संजीदा यादगार अभिनय के लिए याद आती है. 'गुमराह' बीआर चोपड़ा की बेहतरीन फिल्मों में सर्वोत्तम फिल्म है. 'गुमराह' सामाजिक चेतना के उद्देश्य से बनाई गई फिल्म थी. 'गुमराह' अपने ज़माने से बहुत पहले की फिल्म थी. बीआर चोपड़ा ने फ़िल्म नफ़रत की बजाय माफ कर देने की पृष्ठभूमि पर बनाया. आम तौर पर हिन्दी सिनेमा में फ़िल्में उस ही संदर्भ में बनती आई हैं, जो विषय समाज में किसी न किसी रूप में व्याप्त हो. लोगों को इस संदर्भ की जानकारी हो, साठ के दशक में एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर खूब प्रचलन में था. फिल्मी गलियारों से समाज में भी पहुंच चुका था. कई बार देखा गया है, हवाहवाई कहानी के साथ बनती फ़िल्में दर्शकों ने नकार दिया है. यथार्थ भाव को दर्शाती फिल्म गुमराह की सफलता इस बात की तस्दीक करती है. 

फिल्म एक नाटक से शुरू होती है, रामायण के एक दृश्य से रावण सीता हरण के उद्देश्य से पंचवटी में राम की कुटिया के सामने भिक्षा माँगने आता है. राम की पुकार सुन कर लक्ष्मण रेखा खींचते हुए, सीता को बाहर न आने की सलाह दे कर जंगल चले जाते हैं. सीता रावण के बरगलाने के बाद श्राप के भय से उस सुरक्षात्मक रेखा को पार कर लेती हैं. अंततः रावण उनको उठाकर ले जाता है.

फिल्म भी लगभग इसी आधार पर बनाई गई है, सामजिक संदेश देती फिल्म में एक स्त्री जब अपनी मर्यादा को लांघ जाती है, तो केवल एक घर नहीं, सामजिक असंतुलन भी बढ़ जाता है. फ़िल्म में अशोक कुमार भी अंत में यही कहते हुए समझाते हैं, कि समाज में स्त्री के कारण ही वो पारिवारिक गठजोड़ है, संतुलन है, चूंकि घर की दरो - दीवार को सम्भालना औरतों के हिम्मत की बात है, पुरुष तो भंवरे हैं, उनके कुव्वत भी नहीं है, लेकिन बगावती स्त्री को कौन रोक सका है. अशोक कुमार की परिपक्व ऐक्टिंग बहुत आकर्षित करती है. 

मीना (माला सिन्हा) और कमला (निरुपा रॉय) नैनीताल के एक अमीर आदमी की दो बेटियाँ हैं. मीना राजेंद्र (सुनील दत्त) से प्रेम करती है, जो कि एक चित्रकार और गायक है. कमला शादीशुदा है और उसके पति अशोक (अशोक कुमार) बंबई में एक वकील है. कमला के दो बच्चे हैं जो अपनी मौसी (मीना) से बहुत प्रेम करते हैं. कमला अपने तीसरे बच्चे के जन्म के लिए अपने मायके आती हैं. जब उसे मीना के प्रेम प्रसंग के बारे में पता चलता है, और वो उसकी और राजेंद्र की शादी की बात अपने पिता के सामने रखने की हामी भरती है, लेकिन उससे पहले ही दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटनावश बच्चे को जन्म देते समय उसकी मौत हो जाती है. अशोक कुमार को पत्नी के जाने का अथाह दुःख होता है.

छोटे से बच्चों को माँ की ज़रूरत है, ऐसे मीना के पिता सोचते रहते हैं, उनका डर रहता है कि दूसरी कोई लड़की अशोक की जिंदगी में आई तो बच्चों को वो प्यार नहीं मिलेगा. मीना बच्चों के प्रेम में विवश हो जाती है. एक स्त्री को जो करना चाहिए, मीना ने भी वही किया. मीना ने यूँ तो सोच रखा था, कि वो अशोक कुमार से शादी कर लेगी, और बच्चों को प्यार करेगी. बुजुर्ग पिता का मन भी रह जाता है, अशोक से शादी करने के लिए मीना को मना लेते हैं. बच्चे मीना को माँ कहकर पुकारते हैं. मीना अपने प्रेम को भूलकर स्त्रीत्व का उदाहरण सेट करते हुए, राजेन्द्र को भूलकर अशोक से शादी कर लेती है. अशोक के साथ अपने ससुराल बंबई चली जाती है. कुछ दिनों बाद मीना मायके घूमने आती है, अचानक उसकी राजेंद्र (सुनील दत्त) से मुलाकात हो जाती है.जिसकी एक गायक चित्रकार के रूप में अशोक से पहचान हो जाती है, राजेंद्र मीना के घर आने-जाने लगता है. आख़िरकार वही होता है जो एक स्त्री के लिए समाज ने कभी इस तरह की कोई सहूलियतें नहीं छोड़ी है. मीना न चाहते हुए भी राजेन्द्र (सुनील दत्त) से नियमित मिलने लगती है. परिपक्व अशोक कुमार अपनी नई नवेली पत्नी के हाव - भाव को समझते हुए उसके पीछे शशिकला को लगा देते हैं, कि तुम राजेंद्र की पत्नी बनकर इसको ब्लेकमेल करो, आख़िरकार मीना खुद को शर्मिदा महसूस करते हुए खुद से कमिटमेंट करती है, कि वो पुराने प्रेम राजेन्द्र (सुनील दत्त) को भूल जाएगी.

फिल्म में सबसे ज्यादा प्रभावी रोल दादा मुनि अशोक कुमार का है, फिल्म में योग्य, शिक्षित इससे भी ज्यादा उदारवादी इंसान की भूमिका में अशोक कुमार को देखते ही बनता है. वहीं अशोक कुमार नफ़रत करने की बजाय माफ कर देने वाली अभिनय शैली से दर्शकों को अवगत कराते हैं. देखा जा सकता है, कि जब भी सिल्वर स्क्रीन पर अशोक कुमार आते हैं, तो फ़िर दूसरा कोई दिखता भी नहीं है. फिल्म में सुनील दत्त ने महानतम अशोक कुमार के सामने भी दमदार अभिनय से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं. यूँ तो माला सिन्हा इतनी संजीदा अभिनय के लिए नहीं जानी जाती थीं, लेकिन इस फिल्म में उनका रोल यादगार रहा है. 

'गुमराह'फिल्म सामजिक कुरीतियों को ध्यान में रखकर कहानी को प्रस्तुत करती है. फिल्म में बीआर चोपड़ा के दूरदर्शी निर्देशन को देखा जा सकता है. बीआर चोपड़ा प्रतिभाशाली निर्देशक थे. इस फिल्म में उनकी प्रतिभा देखी जा सकती है. फिल्म विवाहित स्त्री के मन में मचल रहे, प्रेम को लेकर, एक - एक धागे को खोलकर रख देती है.जब विवाहित स्त्री प्रेम में पड़ जाती है, तो उसको रोकना बहुत मुश्किल है. या यूं कहें कि उसका जाना सिर्फ एक औपचारिकता होती है. मशहूर शायर "खलील उर रहमान कमर" की कहावत इस फिल्म की पृष्ठभूमि पर फिट बैठती है, वो कहते हैं कि 'शादीशुदा औरत जब बेवफ़ाई करती है तो नजरे नहीं झुकाती', लेकिन गैर शादीशुदा लड़की जब बेवफ़ाई करती है तो वो नजरे झुका लेती है', फ़िल्म में अशोक कुमार परिपक्व, समझदार व्यक्ति के रोल में अपनी पत्नी को उदारवादी सोच के तहत रोकने की बजाय देखता है, कि कहां तक जा सकती है , वो उसको कहते हैं, कि एक औरत चाह ले तो घर को आबाद कर सकती है, चाह ले तो बर्बाद कर सकती है. वो जबरन रोकने के बजाय खुला छोड़ देते हैं. बाद में स्त्री के अंदर का स्त्रीत्व जग जाता है, बाद में मीना(माला सिन्हा) अपने घर को आबाद रखती हैं, पश्चात्ताप से जलकर स्त्री और ज्यादा पवित्र हो जाती है, लेकिन समाज में अशोक कुमार जैसा समझदार, उदारवाद पुरुष हो तो टूटते घर को बचाया जा सकता है. 

फिल्म की कास्टिंग में माला सिन्हा की जगह, ट्रेजडी क्वीन मीना कुमारी को लिया गया था, लेकिन मीना कुमारी ने मना कर दिया. बाद में माला को कास्ट कर लिया गया, लेकिन सिन्हा के लिए रोल चुनौती पूर्ण था, क्यों कि यह रोल मीना कुमारी के लिए लिखा गया था. आख़िरकार माला सिन्हा ने रोल ने अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन किया. वहीँ अशोक कुमार की जगह पहली बार बीआर चोपड़ा की फिल्म में शम्मी कपूर को काम करने का मौका मिला, लेकिन शम्मी कपूर ने फिल्म में काम करने से मना कर दिया था. शम्मी कपूर का फिल्म में काम करने से मना करने के पीछे बहुत इंट्रेस्टिंग कारण था. उन्होंने इस रोल को गलत बोलते हुए कहा कि, फिल्म हास्यापद लगेगी. क्योंकि दर्शक एवं मेरे फैन्स मुझे इस भूमिका में स्वीकार नहीं करेंगे. ख़ासकर इस तथ्य को कौन स्वीकार करेगा, कि फिल्म में नायिका सुनील दत्त के लिए मेरे जैसे हैंडसम पति को धोखा देगी, तो फिल्म फ्लॉप हो जाएगी. बाद में इस परिपक्व रोल के लिए अशोक कुमार का चयन किया जाता है, अशोक कुमार से अच्छा यह रोल करने की कुव्वत शायद किसी में नहीं थी, चूंकि उस समय ग्रेट संजीव कुमार सक्रिय नहीं हुए थे. अन्यथा वो अशोक कुमार के अलावा इस मुश्किल रोल के साथ न्याय कर सकते थे.......

म्यूजिकल फ़िल्म 'गुमराह' के सभी गीत, गीतकार साहिर लुधियानवी ने लिखे थे, कहा जाता है, कि साहिर लुधियानवी ने अपनी नमुकम्मल मुहब्बत को याद करते हुए नग्मे लिखे थे. उनके गीतों में उनकी शख्सियत साफ - साफ़ देखी जा सकती है. संगीतकार रवि शंकर शर्मा ने अपनी धुनों से गीतों को सजाया था. गीतों को सुनते हुए रूहानी एहसास होता है. बीआर चोपड़ा ने रफ़ी साहब से गीत गाने की गुज़ारिश की थी, रफ़ी साहब के साथ बात नहीं बनी, फिर महेन्द्र कपूर ने सभी गीतों को अपनी आवाज़ दी, महेन्द्र कपूर ने रफ़ी साहब की स्टाइल में ही गीतों को गाया था. खुश होकर बीआर चोपड़ा ने महेन्द्र कपूर को अपने साथ रख लिया, अधिकांश महेन्द्र कपूर बी आर फिल्म्स के लिए ही गाया. 'गुमराह' फिल्म के यादगार गीतों में.... 

"ये हवा ये फिज़ा आ भी जा"
"आजा आजा रे तुझको"
"आप आए तो ख्याल"
"चलो एक बार फिर से"
"एक परदेशी दूर से आया"
"एक थी लड़की मेरी सहेली"
"तुझको मेरा प्यार पुकारे"

यादगार सुपरहिट गीतों को महेंद्र कपूर, आशा भोसले ने अपनी आवाज दी, साहिर ने कलम से उकेरा, रवि ने अपना संगीत देकर फिल्म का संगीत अमर कर दिया, आज भी ये नग्मे गाए जाते हैं. साहिर लुधियानवी कहते थे. मेरे नग्मे दुनिया गाएगी. यक़ीनन नमुकम्मल इश्क़ के साथ ये नग्मे गाए जाएंगे. 

 दिलीप कुमार

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