प्रकाश झा की क्लासिकल कल्ट फिल्म मट्टो की साईकिल

'मट्टो की साईकिल' 

फिल्म मट्टो की साइकिल ने अपने रोचक विषय के कारण सभी का ध्यान आकर्षित किया है. एम गनी के निदेशन में बनी फिल्म की नीव यथार्थवाद पर टिकी हुई है. ख़ासकर प्रकाश झा की अदाकारी इसे महान फिल्म की श्रेणी में ले जाती है. मट्टो की साइकिल का प्रीमियर बुसान फिल्म फेस्टिवल 2020 में ही हो चुका है. प्रकाश झा ने हिन्दी सिनेमा के मुकुट में एक नायाब नगीना जड़ने के लिए हमेशा याद किए जाएंगे. मुन्शी प्रेमचन्द को गुज़रे ज़माने हो गए, लेकिन उनकी कहानियों का हीरो आज भी मट्टो के रूप में जिंदा है. सरोकार का सिनेमा गढ़ने वाले अनोखे फ़िल्मकार हमेशा रहे हैं. कमर्शियल सिनेमा का तूफान हमेशा बुलन्द रहा है, लेकिन उसके ठीक समानान्तर कला फ़िल्मों का दीपक भी अनवरत जलता रहा है. आज के दौर में कला फ़िल्में बनाने वाले फ़िल्मकार, अदाकार प्रकाश झा जब अपनी कहानियो को यथार्थ के धरातल पर उतारते हैं, तो दर्शकों के बरबस आँखों से बरबस आंसू बहने लगते हैं. 
सिनेमा का सबसे बड़ा प्रभाव यही होता है कि दर्शक उसके साथ बह जाएं. फिल्म शुरू होती है प्रधानी का चुनाव का माहौल गर्म है, उस दौरान फ़िल्म के बैकग्राउंड पर गाना गाना बजता है, पांच साल की लॉटरी'. समूचा लोक इसमें समाया है. इसे लिखा है शक्ति प्रकाश द्वारा लिखा गया है. होतीलाल पांडे ने गाया और कंपोज किया है.इस गीत में एक लाइन है 'सूखे बम्बा में बहेगी शराब'. चुनाव के समय तो ख़ूब शराब बही. पर अब पानी भी नहीं बह रहा. दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में ख़राब पानी की समस्या से लोग बीमार हो रहे हैं. जिस देश की महिमा विश्वगुरु कहकर राजनेताओं द्वारा गाई जाती हो, वहाँ जनता को पूर्णता के आभास का पेय पिलाया जाता है, भले ही पेट में रोटी न हो पेट - पीठ का फर्क़ खत्म हो जाए, लेकिन गर्व में कमी नहीं होना चाहिए. खून पसीने की कमाई जोड़कर खरीदी गई साइकिल के चोरी की रिपोर्ट तक नहीं लिखी जाती, गरीबो - अमीरों के बीच कैसा दोहराव है, एक तरफ़ पैसे के दम पर कानून भी बहुत सारी गुंजाईशे पैदा करता है. आज के दौर में राजनीतिक इवेंट करते हुए जनता का खूब मनोरंजन किया जाता है, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र का उत्सव मनाकर खत्म होते न्याय तंत्र को जो आखिरी लाइन में खड़े आदमी के लिए उम्मीद है, तब लोगों के आँखों में उत्सवधर्मिता की पट्टी बाँध दी जाती है. यह बहुत ज्यादा विचार करने वाले लोगों को समझ आएगा, वर्ना लोमड़ी की चालें एवं नेताओं की भाषण बाज़ी एक ही मनोदशा का सृजन है. सरपट दौड़ते देश में अब भी कई लोग हैं, जो रेंग रहे हैं. एक वक़्त का खाना भी जिन्हें नसीब नहीं होता. मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है. प्रकाश झा की फ़िल्म 'मट्टो की साइकिल' ऐसे ही देश की कहानी है. जहां वायदों के अलावा आम लोगों के लिए खास कुछ नहीं है. साथ ही गाना के कोलाहल के खत्म होते ही बैकग्राउंड पर बकरियों के मिमीयाने की आवाजें फ़िल्म की कहानी कहती हैं, कि फिल्म यथार्थ के कैनवास पर उतारी गई है. 
फिल्म की कहानी में नायक मट्टो पाल (प्रकाश झा) हैं जो इस फिल्म के सृजनकर्ता हैं, एवं उनकी नायिका पुरानी साइकिल है. क्या एक साईकिल पर पूरी फिल्म बनाई जा सकती है, जी हां वो साईकिल किसी के जीवन का जीता जागता स्मारक है. फिर मुद्दा एक साईकिल नहीं रह जाती. वो साइकिल उनके लिए जान से बढ़कर है.कहीं न कहीं मट्टो की साईकिल उनके जीवन की रोजी रोटी मुहैया कराने में मदद करती है. मट्टो अपने परिवार  वो उसी के सहारे पालते हैं. परिवार में पत्नी और दो बेटियों समेत कुल चार लोग हैं. साइकिल नहीं तो काम पर कैसे जाएंगे? काम पर नहीं जाएंगे तो दो वक़्त की रोटी कैसे नसीब होगी. दिहाड़ी मज़दूर की यही दास्तान है. गांव से एक आदमी शहर हर रोज़ रोटी के इंतजाम के लिए जद्दोजहद करने जाता है. किसी तरह की कोई सेविंग्स नहीं, ऊपर से कर्ज़ का बोझ सो अलग. अचानक पैसे की ज़रूरत आन पड़े तो जेवर बेचकर काम चलता है. ऐसे ही एक दिहाड़ी मजदूर के भीतर धंसी ग़रीबी, बाहरी तौर से दिख रहे समाज में धंसे एक और समाज की कहानी है, 'मट्टो की साइकिल'.

असल जीवन का आईना लगने वाली फिल्म का अभिनय एवं सिनेमैटिक लिहाज से सीखने लायक है. मट्टो की साइकिल में कालजयी अभिनय ही कहना उचित है. एम गनी की यह फिल्म हिंदी सिनेमा के मौजूदा दौर के बराबर में नई लकीर खींच रही है. फिल्म में लोकेशन भी किरदार है. मथुरा के रियल लोकेशंस में शूट की गई है, इस फिल्म में टेंट लगाकर
 वीएफएक्स से छायाकार ने चमकाया नहीं है, जैसे जो कुछ है वैसे ही पर्दे पर पेश कर दिया गया. फिल्म में कुछ भी बनावटी नहीं है. फिल्म में सब कुछ स्थानीय है. किरदारों द्वारा स्थानीय बृजभाषा के कारण मन मोह लेते हैं. फिल्म में कुछ स्थानीय कलाकारों ने भी काम किया है, जैसे यथार्थ सिनेमा का एक रूप है. मट्टो की साइकिल मूल सिनेमा है. 

"हंसबे बोलबे में ही जिंदगी को सार है मेरे जैसा सेलिब्रिटी तुमाओ यार है". जे का कम है, ऐसे संवाद और भी डायलॉग्स, जो सामाजिक सच्चाई की कील हमारे सीने में ठोंकते हैं. जैसे, एक जगह जब मट्टो किसी से पैसा उधार लेने की बात करता है, तो उसकी पत्नी कहती है: पैसा वालेन को ही लोग देवे हैं पैसा' यह रियल सिनेमा है.. आज भी हिन्दुस्तान में कई भारत रहते हैं, करोड़ों लोग आज भी यह सोचते हैं कि बीस रुपये में सब्जी कैसे आएगी.. बेटियां बड़ी हो रहीं हैं, पढ़ाया लिखाया तो है नहीं, अब जरूरी है, शादी कैसे किया जाए, शादी करने के लिए पैसे ही नहीं है. ग्राम प्रधान जो सभी के हित का डंका पीट रहा है. जो सभी की आवभगत करता है सिर्फ वोट पाने के लिए वही प्रधान एक वक़्त के बाद पूर्णतः बदल जाता है, गांव का एक व्यक्ति अपनी पूंजी लगाकर साईकिल खरीद कर लाया ही था, कि चोरी हो गई, वहीँ प्रधान 27 लाख की मोटर कार खरीद कर लाया है, गांव वैसा ही है कुछ नहीं बदला, आज भी लोग गन्दा पानी पीकर बीमार होते हैं. फिल्म में एक वकील साहब हैं, जो तरह तरह की खबरे पढ़ते रहते हैं, जो समाज के दंश का एक - एक रेशा खोलते रहते हैं. हालांकि प्रधान जी पूर्णतः बदल गए हैं. जिन्होंने अपनी गाड़ी की खुशी के मारे मट्टो की साइकिल चोरी होने का दर्द नहीं समझा.... यही हर गांव की कहानी है, जो यह फिल्म कहती है, फिल्म के क्लाइमेक्स में बच्चे के हाथो में तिरंगा लिए उत्सव मानते दिख रहे हैं.. साथ ही खत्म होते ही फिल्म के साथ कलेजा हाथ में आ जाता है. फिल्म सोचने पर मजबूर कर देती है. ऐसी फ़िल्मों का निर्माण होते रहना चाहिए.. टेक्नोलॉजी की दुनिया को पता चलता रहना चाहिए, कि हिन्दुस्तान में एक नहीं कई स्तर के लोग हैं, जो अपनी - अपनी हैसियत से देश बनाते हैं.. प्रकाश झा को ऐसी महान फिल्म निर्माण के लिए महानता के लिए हमेशा याद किया जाएगा.... प्रकाश झा को कालजयी फिल्म के निर्माण के लिए एवं अपनी अदाकारी से आज के सतही दौर में कल्ट फिल्म बनाने के लिए करोड़ों सिनेमाई दर्शकों सहित मेरा सलाम...

दिलीप कुमार 

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