राज कपूर साहब की फिल्म संगम

"बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं" 

ग्रेट शो मैन राज कपूर साहब करिश्माई फ़िल्मकार थे. राज कपूर सिनेमैटोग्राफी में जादूगर थे. सिनेमाई समझ ऐसी की सीन शूट करते हुए कैमरा पर्सन राज साहब से पूछता कि साहब कैमरे का एंगल ठीक है. मासूमियत भरी अदायगी यथार्थ भाव के बादशाह राज कपूर साहब भोलापन जब पर्दे पर उकेरते थे, तो दर्शकों के मन में भावनाओं का निर्झर ज्वार उमड़ता था. सिने प्रेमी राज कपूर साहब की अदायगी के साथ बह पड़ते थे. राज कपूर का नाम जेहन में आता है तो सबसे पहले श्री 420, मेरा नाम जोकर, आवारा, बरसात, अंदाज़, तीसरी कसम, जागते रहो, आदि फ़िल्में जेहन में चलने लगती है,लेकिन राज साहब द्वारा बनाई गई फिल्म संगम यूँ तो त्रिकोण प्रेम पर आधारित है, पूरी फिल्म में कोई भी विलेन नहीं बनता बल्कि सभी नायक बनकर उभरते हैं. फिल्म की कहानी के अनुसार राज कपूर(सुन्दर) की भूमिका में हैं, वो नायिका को शिद्दत से चाहते हैं न जानते हुए, वो अपने दोस्त (गोपाल) राजेन्द्र कुमार की प्रेमिका राधा (वैजयंतीमाला) को हथिया लेते हैं. यह देखकर सुन्दर यानि राजकपूर से घृणा हो सकती है.... लेकिन राजकपूर की मासूमियत, भोलेपन से भरपूर उनकी अदायगी मन मोह लेती है. 
 
आज भी हर सिने प्रेमी के जेहन में एक गीत अंकित है. साठ सत्तर के दशक ही नहीं बल्कि नब्बे के दशक की पीढ़ियां भी इस गीत को अपने दौर का मानती रही हैं. भारतीय सिनेमा का एवं आम जनमानस का जुड़ाव बहुत नजदीक से रहा है. फ़िल्मों और गीतों के साथ बढ़ती हुई लगभग हर जनरेशन को यह गीत याद आता है, जिसमें राज कपूर नदी किनारे पेड़ की एक डाल पर बैठे हैं. अपनी प्रेमिका को छेड़ रहे हैं. “अरे बोल राधा बोल, संगम होगा कि नही” उसी गीत में फ़िल्म की नायिका वैजयंतीमाला रेड स्विमसूट पहने हुए नदी में तैर रही है. उस सीन में वैजयंतीमाला की खूबसूरती से ज्यादा उनके बोल्ड अंदाज़ ने दर्शकों का मन मोह लिया था. राजकपूर साहब एवं सबसे प्रसिद्ध संगीतकार शंकर-जयकिशन जी की प्रतिभा का संगम तो अद्वितीय था ही, लेकिन संगम फिल्म में दिए गए शंकर-जयकिशन के गाने आज भी चाव से गुनगुनाए जाते हैं. 

फिल्म 'संगम' में राज कपूर अपने साथ नरगिस और दिलीप कुमार को कास्ट करके ‘घरौंदा’ नामक फिल्म बनाना चाहते थे. बात नही बनी. दिलीप कुमार एवं राजकपूर सन 1949 में महबूब खान की फिल्म अंदाज़ में साथ में काम कर चुके थे. फिल्म दिलीप कुमार के इर्द - गिर्द थी, लेकिन पूरी फिल्म में दिलीप साहब से ज्यादा राजकपूर साहब को ज्यादा तवज्जो मिली थी, जिससे दिलीप कुमार निराश हो गए थे. हालांकि राज कपूर एवं दिलीप कुमार दोनों आजीवन मित्र रहे हैं. राजकपूर एवं दिलीप कुमार की मित्रता तमाम मूल्यों को समेटे हुए थी. दिलीप साहब ने एक बार इंटरव्यू में कहा "मेरा नाम जोकर की असफ़लता के बाद राज पूरी तरह से टूट गए थे. उन्होंने मुझे फोन किया आपसे मिलना चाहता हूं, अपने मित्र के लिए मैंने ज्यादा समय न खर्च करते हुए खुद ही अगली सुबह उनके घर पहुंच गया. मेरा नाम जोकर फिल्म राज जी ने बड़ी ही शिद्दत से बनाया था, उन्होंने इस फिल्म में पूरी हैसियत खर्च कर दिया था, दुर्भाग्यपूर्ण फिल्म नहीं चली क्योंकि अपने समय से बहुत पहले की फिल्म थी. यह फिल्म केवल राज कपूर साहब ही बना सकते थे. मैंने पूछा मित्र आप ने मुझे दुःखी मन से क्यों याद किया. राज कपूर साहब ने अपना मंतव्य प्रकट किया, कहा " दिलीप साहब इस फिल्म से मुझे बहुत उम्मीदें थीं, चूंकि फिल्म में कोई कमी नहीं थी, लेकिन इस फिल्म की असफ़लता ने मुझे कंगाल कर दिया". मैं इतने मजबूत शख्सियत को दुखी देखकर टूटने ही वाला था. राज कपूर साहब कहते हैं कि मुझे कुछ मानसिक रूप से परेशानी महसूस हो रही है. तब दिलीप साहब ने कहा कि आपको अपना इलाज करवाना चाहिए. तब राज कपूर साहब नहीं माने.... दिलीप साहब इस बात को समझे की शायद त्रिमूर्ति के एक और अहम कड़ी देव साहब को बुलाया जाए तब हो सकता है राज कपूर मान जाएं. अगले दिन देव साहब एवं दिलीप साहब दोनों ने राज कपूर साहब से कहा इस बात को पूरी तरह से गुप्त रखा जाएगा, कि राजकपूर साहब मनोचिकित्सा करा रहे हैं, क्योंकि अगर यह खबर लीक हुई तो आपके कैरियर को नुकसान पहुंचेगा. इस वायदे के साथ ही राजकपूर साहब विदेश चले गए, इलाज के बाद वापस लौटे, फिर से उन्होंने बेह्तरीन फ़िल्मों का निर्माण किया..... बेमतलब की गॉसिप चलती रहती है कि तीनों परस्पर एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी हैं, स्पर्धा होने का मतलब यह नहीं था कि तीनों में दुश्मनी थी, बल्कि इस सकारात्मक पहलू को देखा जाए तो पता चलता है कि देव - राज - दिलीप की त्रिमूर्ति एक दूसरे को कितना मानते थे.

ख़ैर दिलीप साहब ने संगम में काम करने से मना कर दिया, क्योंकि उन्हें पता था, कि एक स्क्रीन पर राज कपूर एवं दिलीप कुमार दोनों के आने से कहानी न्याय नहीं कर पाएगी, लेकिन राज कपूर साहब ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है, आप दोनों रोल में जो चाहें ले लीजिए. आख़िरकार दिलीप साहब जानते थे, कि यह 1949 का दौर नहीं था, यह साठ का दशक है यहां दर्शकों में विद्रोह हो सकता है, अतः दिलीप साहब ने जान बूझकर कमजोर नस दबा दिया, दिलीप कुमार ने कहा कि राज जी फिल्म में एडिटिंग की भूमिका मैं करूंगा... अखिरकार राज कपूर साहब नहीं माने.... फिर देव साहब से यही पेशकश हुई, देव साहब को एक किरदार नकारात्मक लगा, वहीँ राजेन्द्र कुमार वाले रोल के लिए उन्हें अगर ऐक्ट्रिस नहीं मिली तो रोल हास्यापद लगता. देव साहब मल्टीस्टार्टर फ़िल्में करते नहीं थे, अतः उन्होंने मना कर दिया. उत्तम कुमार ने भी फिल्म करने से मना कर दिया था. बाद में जुबली कुमार उर्फ राजेन्द्र कुमार को यह रोल मिला. उस वक़्त तक नरगिस एवं राज कपूर दोनों का ब्रेक अप हो चुका था. हालांकि दोनों में उसके बाद भी मित्रता रही, नरगिस उस तरीके से मना नहीं करना चाहती थीं, तो उन्होंने राज कपूर को बुरा न लगे इसलिए बहाना बना लिया. की राजेन्द्र कुमार को गोपाल के किरदार के लिए फाइनल किया है, मैं ‘मदर इंडिया’ में राजेंद्र कुमार की माँ बन चुकी हूं इसलिए अब प्रेमिका नही बनना चाहती. 

फिल्म की कहानी में सुन्दर (राज कपूर), गोपाल (राजेन्द्र कुमार) और राधा (वैजयंतीमाला) बचपन से दोस्तबड़े होने के बाद राधा से सुन्दर प्यार करने लगता है, पर वो गोपाल को पसंद करते रहती है. जब सुन्दर अपने प्यार के बारे में गोपाल को बताता है तो गोपाल अपने प्यार को मन में ही दबा लेता है. सुन्दर भारतीय वायुसेना में शामिल हो जाता है. वो मिशन में जाने से पहले गोपाल से वादा लेता है, कि वो किसी को भी राधा और उसके बीच नहीं आने देगा और ऐसा बोल कर वो चले जाता है. इसके बाद उसका विमान नष्ट होने की खबर आती है. जिससे सभी मान लेते हैं कि उसकी मौत हो चुकी है। सुन्दर के मर जाने के बाद, राधा से अपने दिल की बात कहने के लिए गोपाल एक प्रेम पत्र लिखता है. वो उस पत्र को लेकर अपने पास कहीं छुपा लेती है. दोनों शादी करने की सोचते रहते हैं कि तभी सुन्दर पूरी तरह सुरक्षित और अच्छे हालत में वापस आ जाता है. सुन्दर को देख कर गोपाल फिर से अपने प्यार को मन में ही दबा लेता है. सुन्दर वापस आने के बाद वो राधा को शादी के लिए मनाने की कोशिश करते रहता है और बाद में उन दोनों की शादी भी हो जाती है. 

फिल्म त्रिकोण प्रेम पर आधरित थी, तो तीनों में गलतफहमियां बढ़ जाती हैं, जिससे वो सुन्दर की बंदूक ले कर गोपाल खुद को गोली मार लेता है. अंत में राधा और सुन्दर वापस एक हो जाते हैं. फिल्म का रोमांच चार घण्टे तक बांधे रहता है, म्युजिकल, सस्पेंस त्रिकोण प्रेम फिल्म हिंदी सिनेमा की कालजयी फिल्म है. सिने प्रेमियों को ज़रूर देखना चाहिए. 

राज कपूर ने उस दौर में एक लंबी फ़िल्म बनाने का निर्णय लिया था. यह फ़िल्म करीबन चार घंटे की थी. यह हिन्दी सिनेमा के इतिहास की पहली फिल्म थी. जिसकी शूटिंग यूरोप में हुई. उस दौर में लोगों के लिए विदेश यात्रा एक प्रकार से ख्वाब था, बहुत कम लोगों ने विदेश देखा रहा होगा. संगम फिल्म कई देशों में शूट हुई. इसके बाद एन इवनिंग इन पेरिस, लव इन टोक्यो, आदि फ़िल्में विदेश में शूट हुईं. विदेशों में शूटिंग का ट्रेंड राजकपूर साहब ने शुरू किया था. संगम राजकपूर साहब की पहली रंगीन फिल्म थी, वहीँ हिन्दी सिनेमा की पहली दो इंटरवेल वाली फिल्म थी. इस फ़िल्म को देखने जाने का अर्थ यह था, मानो आप दिन भर के लिए कहीं पिकनिक मनाने के लिए जा रहे हैं. इतनी लंबी फिल्म दर्शकों को एक मिनट के लिए भी बोर नहीं करतीं, बल्कि चार घण्टे की फिल्म खत्म होने के बाद लगता है, फिल्म और होना चाहिए था. फ़िल्म को दर्शकों ने बेपनाह मोहब्बत से नवाजा. इसने जमकर कारोबार किया. यह पहली हिंदी फिल्म थी जिसकी शूटिंग यूरोप में की गई थी. इस फिल्म को सोवियत संघ में भी रिलीज किया गया था और 1968 में यह टर्की, बुल्गारिया, ग्रीस और हंगरी में भी रिलीज हुई थी. यह राज कपूर की पहली रंगीन फ़िल्म थी. अपने सपनों के इस प्रोजेक्ट के लिए राज कपूर ने संपादन का काम खुद किया. 

राज कपूर की फ़िल्म आवारा 1951 में ही नरगिस ने पहली बार स्विमसूट पहन कर हिन्दी सिनेमा में एक आधुनिकता की लकीरें खींच दिया था. वे उन शुरुआती अभिनेत्रियो में से एक थी, जिन्होंने पर्दे के लिए बिकनी और स्विमसूट पहनना शुरू किया. उनके बाद नूतन ने 1958 में दिल्ली का ठग के लिए स्विमसूट पहना, लेकिन संगम में वैजयंती माला ने जो अदा दिखाई, उनके सामने बाकी सभी अभिनेत्रियाँ फीकी रह गई. उस वक़्त उनके एंट्री सीन में ही उनकी सुंदरता देखकर दर्शक मुरीद हो गए थे.

यूँ तो राजकपूर साहब सिनेमेटोग्राफी के साथ, साथ प्रोडक्शन मैनेजमेंट के लिए जाने जाते थे, संगम फिल्म में इतना भव्य सेट पर एक - एक चीज़ का ध्यान रखा गया, लेकिन फिल्म में एक छोटी सी चूक कैसे हुई. यह राजकपूर जी की नज़रों से बच गई होगी सोचकर अज़ीब लगता है. फिल्म के शुरुआत में राजेन्द्र कुमार उर्फ गोपाल फॉरेन से पढ़कर वतन लौटता है, एयरपोर्ट पर सभी लोग उनकी अगवानी करने के लिए पहुंचते हैं, वहीँ ऑटो से राजकपूर साहब उर्फ ( सुन्दर) भी अपने दोस्त की अगवानी के लिए पहुंचते हैं. तो वो पहुंच नहीं पाते, वहीँ राजेन्द्र कुमार लौटने के बाद राजकपूर से शिकायत करते हैं, कि सुन्दर सभी लोग मुझे लेने आए, तुम मुझे लेने क्यों नहीं आए? सुन्दर यानि राजकपूर जवाब देते हैं कहते हैं तुम तो जानते हो मेरे पास टूटी हुई साइकिल है.... इसलिए लेट हो गया, जबकि वॊ गए थे ऑटो से कह रहे हैं साईकिल से यह त्रुटि समझ से परे है, जहां राजकपूर जैसे ग्रेट फ़िल्मकार की फिल्म हो कैसे बात हजम हो सकती है. 

प्रेम चोपड़ा ने एक डायलॉग अपनी सैकड़ों फ़िल्मों में बोला है " मैं वो बला हूं जो शीशे से पत्थर को तोड़ दूँ.... दरअसल यह डायलॉग राज कपूर साहब ने पहली बार संगम फिल्म में बोला था, जिसे प्रेम चोपड़ा हर फिल्म में बोलते थे. यह कहावत चरितार्थ है कि अभिनय में देव - राज - दिलीप से सभी प्रभावित हैं... 
फ़िल्म को इन्दर राज आनन्द ने लिखा है. फिल्म में गीत कविराज शैलेन्द्र जी एवं हसरत जयपुरी साहब ने लिखे. इस फिल्म में संगीत राज कपूर की फ़िल्मों की गारंटी माने जाने वाले शंकर - जय किशनजी जी ने दिया. वहीँ राज कपूर जी के लिए आवाज मुकेश जी ने दी, वहीँ राजेन्द्र कुमार जी के लिए रफी साहब ने आवाज दी एक गीत महेंद्र कपूर ने गाया फीमेल आवाज़ लता मंगेशकर ने दी... संगम फिल्म हिन्दी सिनेमा की एक विरासत है, जो राजकपूर जी की शख्सियत को बयां करती है, आज के दौर में राज कपूर जैसे लोग भगवान माफ़िक लगते है. कहाँ गए?हमेशा चमकते रहते हैं... स्मृतियों में...

दिलीप कुमार

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