'तारे जमीन पर' आमिर खान का फलसफा

हर बच्चा अपने आप में यूनिक होता है, हर बच्चा खुदा की नेमत होता है. अक्सर जब मोटिवेशनल और बेहतरीन पेरेंटिंग के गुण सिखाने वाली फिल्मों की बात होती है, तो 'तारे जमीन पर' फिल्म का नाम सबसे अव्वल है. आमिर खान हिन्दी सिनेमा के मिस्टर परफेक्शनिस्ट क्यों कहे जाते हैं. यह फिल्म बानगी है. इस फिल्म में आमिर खान ने बालमन की व्यथा को क्या खूब समझा है. बच्चों के मन में चल रहे ख्वाबों को क्या खूब पंख दिए गए. व्यक्तिगत रूप से कहूं तो कोई भी सृजनकर्ता हो अगर उसने स्त्रीमन, बालमन, बुजुर्गों की व्यथा पर कुछ सृजन नहीं किया तो मुझे उसकी सृजनात्मक सोच पर शक होता है. आमिर खान को देखकर लगता है, कोई संवेदनाओं से भरा इंसान जो फ़िल्मों में इतना गहरा उतर जाते हैं, फिर खुद भी रोते हैं, और दूसरों को भी रुलाते हैं. एक फ़िल्मकार, अदाकार के साथ अगर दर्शक वर्ग रोने चल निकला है, तो इसका प्रभाव है. 

'तारे जमीन पर' 2007 में रिलीज हुई इस फिल्म को दर्शकों के साथ ही फिल्म समीक्षकों ने भी खूब सराहा था. आमिर खान की दो - तीन फ़िल्मों के अलावा उनकी सारी फ़िल्में क्लासिकल कल्ट ही मानी जाती हैं, वो इसलिए भी कि आमिर ने कुछ भी पर्दे पर किया सब रियल है. आमिर खान की अबतक की सबसे बेहतरीन फिल्मों में भी यह अपनी जगह बनाती है. फिल्म के जरिए उन्होंने बच्चों के भीतर झाँकने की कोशिश की है. गुरु रवींद्रनाथ टैगोर कहते हैं- "हर बच्चा ईश्वर का एक संदेश लेकर आता है, कि ईश्वर अभी मनुष्य से निराश नहीं हुआ है, प्रत्येक बच्चा पृथ्वी पर एक तारा है, विशेष है, जो आत्मा को समृद्ध और शुद्ध करता है, एक खाली कैनवास, जो प्यार से रंगे जाने की प्रतीक्षा कर रहा है". 

फिल्म तो लाखों लोगों ने देखी, अफ़सोस आज भी पैरेंट्स बच्चों के छोटे से मन को समझ नहीं पाते, उनके दिमाग में कितने सारे तूफ़ान आते रहते हैं, जब तक बच्चे पुराने से उबरते है नया तूफान आता है.  इसमें सफलता, परवरिश, जीवन और शिक्षक का जीवन में महत्व जैसे विषयों पर काफी महत्वपूर्ण सीख छिपी हुई है. खासकर कि अगर आप बच्चों के माता /पिता हैं तो यह फिल्म देखना चाहिए. आज के दौर में हर स्तर पर झोल है. आज के दौर में माता पिता बच्चों के साथ संजीव कुमार की फिल्म ज़िन्दगी, एवं बागबान फिल्म देखना चाहते हैं, जिससे बच्चे माता - पिता के मन को समझें तो बच्चे माता - पिता से उनके साथ तारे जमीं पर फिल्म देखने का आग्रह करते हैं. प्यारे बच्चे हमारे समाज का अहम भाग है, आखिरकार भविष्य भी तो उन्हीं को देख रहा है. लेकिन इस संवेदनशील विषय पर कम ही फ़िल्में बनती हैं, ऐसी फ़िल्में आमिर खान जैसे संवेदनशील इन्सान ही बना सकते हैं. आमिर खान के साहस की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने अपने निर्देशन में बनी ‍पहली फिल्म ‘तारे जमीन पर’ एक बच्चे को केन्द्र में रखकर बनाई है. फिल्म के जरिए उन्होंने बच्चों के भीतर झाँकने की कोशिश की है. 

'तारे जमीन पर' फ़िल्म डिस्लेक्सिया पर आधारित है. यह फिल्म डिस्लेक्सिया के मुद्दे के बारे में जागरूक करती है, और माता-पिता, स्कूलों, कार्यकर्ताओं और नीति निर्माताओं के बीच अधिक खुली चर्चाओं को बढ़ावा देती है. कहानी की सुंदरता यह है कि संदेश सभी बच्चों पर लागू होता है - शिक्षाविदो में रचनात्मकता कैसे एक स्थान के लायक नहीं हो सकती है? यह इस बात पर भी एक बहुत ही सूक्ष्म  इशारा है कि कैसे हम अपने सिस्टम में जड़ों से ही रचना का निर्माण करते हैं.           
फिल्म एक 8 साल के लड़के ईशान अवस्थी (दर्शील सफारी) के बारे में है, जिसे  रंग, पतंग, जानवरों की दुनिया, पेड़ - पौधे, तितलियाँ, भौंरे, आदि अपनी ओर आकर्षित करते हैं. जिसे देखकर लगता है, कि बच्चे के अंदर एक रचनाकार पनप रहा है. जिसका अपने उम्र के बच्चों के साथ खेलना, आदि मुश्किल है. जो थोड़ा बांकी बच्चों से ज्यादा मस्तीखोर भी है. ईशान बांकी बच्चों से थोड़ा अलग तरह से खेलता है,  ईशान के माता - पिता उसे एक एक बोर्डिंग स्कूल में भेजने का फैसला करते हैं. बोर्डिंग स्कूल में उसके ऊपर कोई बदलाव नहीं आए. ईशान अपने शिक्षकों द्वारा उत्पीड़ित और अपमानित किया जाता है, वह कक्षा में हंसी का पात्र बना रहता है. अब जब वह घर से दूर है, तो स्वाभाविक है, वह और भी निराश, हीन महसूस करता है.  अपनी अक्षमताओं का सामना करने में खुद को असहाय पाता है. राम शंकर निकुंभ (आमिर खान) को बोर्डिंग स्कूल के कला शिक्षक के रूप में नियुक्त किया जाता है. बच्चों को शिक्षित करने में निश्चित मानदंडों का पालन करने वाले अन्य शिक्षकों के विपरीत, राम उन्हें किताबों से बाहर, कक्षा की चारदीवारी के बाहर सोचने और उनकी कल्पनाओं को चित्रित एवं रोमांच को पँख देते हैं. सभी बच्चे निकुंभ को पाकर बहुत खुश होते हैं, लेकिन  ईशान अलग ही बच्चा है, वह अब भी अपने अंदर के तूफान से परेशान है. उसकी समस्याओं को समझने की कोशिश करता है. निकुंभ (आमिर) ईशान के माता-पिता और अन्य शिक्षकों को एहसास कराते हैं, कि वह असामान्य नहीं है, बल्कि अपनी खुद की प्रतिभाओं वाला एक बहुत ही खास बच्चा है. समय, धैर्य और सावधानी के साथ  निकुंभ (आमिर) ईशान के आत्मविश्वास के स्तर को बढ़ाने में सफल होते है. वह ईशान को उसकी अक्षमताओं पर काबू पाने और उसके खोए हुए आत्मविश्वास को फिर से खोजने में मदद करते है.  

राम शंकर निकुंभ (आमिर खान) बच्चों को क्लास में समझाते हैं कि यह दुनिया एक ढर्रे पर चलती है, जो भी कुछ अलग करेगा उसको लोग स्वीकार नहीं करती, लेकिन कुछ लोग होते हैं, जो लोग अपनी नज़र से दुनिया देखते हैं. क्लास में प्रकाश के लिए निकुंभ (आमिर खान) ईशान से कहते हैं बल्ब ऑन करो ईशान... ईशान की क्लास में पहली प्रतिक्रिया थी, अचानक उजाला हो जाता है, आमिर पूछते हैं "दुनिया को बल्ब बनाकर, उसका उपयोग किसने सिखाया" ईशान डरते डरते कहता है "थॉमस अल्वा एडिसन" फिर आमिर अल्बर्ट आइंस्टीन तक बच्चों की जिज्ञासा ले जाते हैं, ईशान को उसी श्रेणी का बताते हैं. इस उदहारण से उस बच्चे में एक आत्मविश्वास आता है..निकुंभ (आमिर खान) ईशान के माता - पिता को समझाते हैं, केवल बच्चों के ऊपर खर्च करने से उनकी जरूरतें पूरी करने से यह नहीं है कि माता-पिता बच्चों का ख्याल रखते हैं, बल्कि बच्चों से पूछिए की आपको क्या समस्या है? क्यों है? ख़ासकर बच्चों की एक - दूसरे से तुलना तो बिल्कुल भी न करें हर बच्चा अपने स्तर का होता है. सभी की क्ष्मता अपनी अलग होती है. ये सवाल ढूँढ़िये यकीन करिए बच्चे आपका यह मन देखकर सारी कमियों पर गुजारा कर कर लेते हैं. टीचर्स के लिए यही संदेश है, कि बच्चों को केवल डांटने, नीचा दिखाने से वो नहीं पढ़ते न सीखते हैं बल्कि इससे उनमे हीन भावना आती है. आमिर खान की अदाकारी हर स्तर पर एक सिलेबस है, आज भी मार - दहाड़ वाली फ़िल्में लोगों के दिमाग में हिंसा के प्रति एक आदर का भाव ज़रूर जगाती हैं, आमिर खान की इस फिल्म को हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म के रूप में याद किया जाएगा. इस फिल्म की खूब सराहना हुई थी..

तारे जमीन पर’ फिल्म का देश - विदेश में प्रभाव हुआ था. फिल्म को को देख विदेशी रोते हुए निकले. फिल्म को लेकर एक दिलचस्प किस्सा है. इंटरनेशनल डिस्लेक्सिया एसोसिशन  के लिए 29 अक्टूबर 2009 को ‘तारे जमीन पर’ फिल्म को वॉशिंगटन में दिखाया गया था. आमिर खान ने मीडिया को दिए इंटरव्यू में बताया था "दर्शकों में करीब 200 विदेशी दर्शक थे, और मैं उनके रिएक्शन देखना चाहता था. मैं ये जानना चाहता था कि हमने क्या किया है. लेकिन हमारी चिंता ये थी कि इस फिल्म को मामूली समझ एक सिनेमाहॉल के बजाय एक कमरे में दिखाया गया था. लेकिन ‘तारे जमीन पर’ देखने के बाद लोग  निकले, हमने आंसू बहते देखे. इस फिल्म के दर्शकों को देख अपने घर भारतीय दर्शकों जैसा ही एहसास हुआ’. संवेदनाएं हर देश /समाज में होती हैं. सिनेमा का यही प्रभाव होता है. आमिर खान की ख़ासियत भी यही है खुद भी रोते हैं, और दर्शकों को खूब रुलाते है..

दिलीप कुमार 

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