सोहराब मोदी के विलियम शेक्सपियर

'विलियम शेक्सपियर के साहित्य पर आधारित 
हेमलेट एवं खून का खून' 

विलियम शेक्सपियर का नाम आज भी पूरी दुनिया में साहित्य, नाटकों की विधा में बड़ी अदब के साथ लिया जाता है. दुनिया के कोने - कोने में उनका साहित्य पढ़ाया जाता है. पूरी दुनिया में उनके नाटकों पर प्ले, ड्रामा, फ़िल्मों का निर्माण होता है, लेकिन भारत में सबसे पहले उनके नायकों पर फिल्म बनाने का सिलसिला सोहराब मोदी से ही होता है. यह पक्ष इसलिए रखना आवश्यक हो जाता है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमेशा ही भारतीय फ़िल्मों को हेय की दृष्टि से देखा गया है. भारतीय सिनेमा को वैश्विक स्तर पर हमेशा ही अछूत समझा गया है. ऑस्कर भारत कभी भी आने की संभावना ही नहीं होती. ऑस्कर प्रदर्शनी में भारतीय फ़िल्में दिखाई जाती है, तारीफ़ भी पाती हैं, लेकिन भारतीय सिनेमा को ऑस्कर क्यों नहीं मिलता? भारतीय सिनेमा को हेय की दृष्टि से क्यों देखा जाता है? ऐसा भी नहीं है, कि भारत में ऑस्कर जीतने लायक फ़िल्मों का निर्माण नहीं हुआ है. महबूब खान निर्देशित मदर इन्डिया कौन भूल सकता है!!! देवानंद साहब की महानतम कल्ट फिल्म गाइड कौन भूल सकता है!!, दो बीघा ज़मीन, कौन भूल सकता है!! अफ़सोस ये महानतम फ़िल्में ऑस्कर जीतने से चूक गईं. मैं ऑस्कर पुरस्कार को संदेह की दृष्टि से देखता हूं.... थोड़ा नाराज़गी भी है, कि यह ऑस्कर हमेशा से ही भारतीय सिनेमा की अपेक्षा करता आता है. ऑस्कर अवॉर्ड का एक पक्षपात खुलकर समाने आता है, इसका एक प्रमुख कारण यह है, कि विलियम शेक्सपियर के साहित्य पर सबसे पहले सोहराब मोदी ने फिल्म बनाई थी, लेकिन अफ़सोस ऑस्कर की नज़र में सोहराब मोदी आए ही नहीं... दरअसल प्रकाश डालना चाहता है, कि सोहराब मोदी क्यों ऑस्कर के सबसे बड़े दावेदार होने चाहिए थे. बीसवीं सदी के सबसे बड़े थियेटर अभिनेताओं में गिने जाने वाले सर लॉरेन्स ओलिवियर, अभिनीत शेक्सपियर के सबसे मशहूर प्रसिद्ध हैमलेट के लिए जाना जाता है. क्योंकि सबसे बड़े साहित्यकार, नाटककार विलियम शेक्सपीयर के नाटक हैमलेट पर विमर्श पूरी दुनिया में होता है, शायद दुनिया में ऐसी कोई यूनिवर्सिटी नहीं है, जहां अंग्रेजी साहित्य के सिलेबस में इसे न पढ़ाया जाता हो. विलियम शेक्सपियर के साहित्य, उनके नाटकों को समझना किसी के बस की बात नहीं है. शेक्सपियर नाम ही काफ़ी है. 'हैमलेट'इस नाटक पर 1948 में सर लॉरेन्स ओलिवियर ने इसी नाम से एक फिम्ल का निर्देशन किया था. निर्देशक के रूप में यह उनकी दूसरी फिल्म थी. मुख्य किरदार भी लॉरेन्स ओलिवियर ने ही निभाया था. इसमे शानदार प्रोडक्शन डिजायन किया गया था. जिसे उस साल सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ऑस्कर मिला. हैमलेट फिल्म यह इनाम जीतने वाली पहली ब्रिटिश फिल्म थी. इस नाटक पर बनी यह पहली अंग्रेज़ी फिल्म थी. 

आज के दौर में हिन्दी सिनेमा पर चोरी के या प्रेरित होने के आरोप लगते हैं, आज सोहराब मोदी जैसे शिल्पकार होते तो "सिर पटकते कि हमारा सिनेमा क्या था क्या हो गया". यह बात इसलिए ही नहीं कह रहा हूं, क्योंकि भारत में ‘हैमलेट’ पर फिल्म एक दशक पहले ही बना दिया गया था. 1935 में सोहराब मोदी ने शेक्सपियर के इसी महान नाटक को आधार बनाकर ‘खून का खून’ नाम से एक साउंड-फिल्म बना दी थी. बताया जाता है कि यह फिल्म हैमलेट पर बनी सबसे पहली फिल्म थी,  जो शेक्सपियर के मशहूर नाटक पर आधारित थ.  सर लॉरेन्स ओलिवियर, को हैमलेट के लिए, अगर ऑस्कर मिला, तो क्या एक दशक पहले ही भारत को ऑस्कर नहीं मिलना चाहिए था. सोहराब मोदी ने तो फिर भी लकीर खींच दिया था. इससे सोहराब मोदी की सिनेमाई समझ का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, कि कितनी दूरदृष्टि के फ़िल्मकार थे.सर लॉरेन्स ओलिवियर को दुनिया में शेक्सपियर के किरदारों की वजह से पहचान मिली, उनको ऑस्कर भी इसी कहानी पर मिला, लेकिन सोहराब मोदी इसके योग्य नहीं थे???? प्रश्न है.. शेक्सपीयर को भारत की फिल्मों में लाने का श्रेय सोहराब मोदी को जाता है.खून का खून’ में खुद सोहराब मोदी ने हैमलेट की भूमिका निभाई थी.फिल्म में अपने समय की बड़ी अदाकारा सायरा बानो की माँ नसीम बानो की यह डेब्यू फिल्म थी, जिन्होंने ओफीलिया की भूमिका निभाई थी. यह अपने आप में एक अमर फिल्म है.. सोहराब मोदी की सिनेमाई समझ का कैनवास बहुत ऊंचा है. 

सोहराब मोदी को हिन्दी सिनेमा का पहला शो मैन कहा जाता था. उनको शो मैन कहे जाने के पीछे उनकी सिनेमाई समझ का एक महत्वपूर्ण दायरा है. मोदी एक अनोखे अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, थे जो पारसी थे, लेकिन हिन्दुओं के देवी - देवताओं पर ऐसी फ़िल्मों का निर्माण किया, जिनका स्तर वैश्विक था. आज संजय लीला भंसाली एवं आशुतोष गोवारिकर, आदि फ़िल्मकार बड़े - बड़े सेट डिजायन करते हुए एतिहासिक फ़िल्मों का निर्माण करते हैं लेकिन सबसे पहले इस अंदाज को रुपहले पर्दे पर उतारने वाले फ़िल्मकार सोहराब मोदी ही थे. बड़े - बड़े फिल्मी सेट बनाना एतिहासिक फ़िल्मों का ऐसा तानाबाना बुनते थे. एतिहासिक बोध धरातल पर उतारते हुए दर्शकों की एतिहासिक चेतना का प्रसार करते थे.आज के दौर में विशाल भारद्वाज भले ही विलियम शेक्सपियर के दुखांत नाटकों पर फ़िल्मों के निर्माण के लिए जाने जाते हैं, लेकिन भारतीय सिनेमा में सबसे पहले विलियम शेक्सपियर के नाटकों पर फिल्म बनाने का चलन सोहराब मोदी ही लेकर आए थे. 

फिल्म के बाकी कलाकारों में शमशाद बाई, गुलाम हुसैन और फज़ल करीम वगैरह थे. ध्यान रहे कि शमशाद बाई नसीम बानू की माँ थीं जिनसे सोहराब मोदी ने हैमलेट की माँ गर्ट्रूड का रोल करने के लिए कहा था, ताकि युवा नसीम को सेट पर काम करने में आसानी हो, उस ज़माने में लड़कियों का फिल्मों में काम करना अच्छी दृष्टी से नहीं देखा जाता था. सोहराब मोदी मानवीय मूल्यों के प्रति महान इंसान थे, अभिनेत्री तबस्सुम बताती हैं, "पचास के दशक में मुझे भी महान सोहराब मोदी की फिल्म में काम करने का मौका मिला था,उस फिल्म में मुझे बाल कलाकार के रूप में काम मिला था, मेरा अंतिम शूट बांकी था, अगर वो हो जाता तो, फिल्म रिलीज के लिए तैयार हो जाती, लेकिन महान सोहराब मोदी ने मुझसे पूछा बेटा "आपकी तबियत ठीक है? मैं कुछ नहीं बोल पाई मेरी अलसाई आँखों से समझ गए कि मेरी तबियत नासाज़ है",सोहराब मोदी साहब ने बोल दिया 'पैकअप' फिल्म की लीड ऐक्ट्रिस पाकिस्तान से ताल्लुक रखती थीं, उन्होंने सोहराब मोदी से अनुरोध किया, "आज शाम को मैं पाकिस्तान जा रही हूँ फिर दो महीने बाद लौट पाऊँगी". सोहराब मोदी ने कहा "कोई बात नहीं आप जाओ छह महीने तक भी इंतजार करूंगा, लेकिन एक बच्ची का शोषण नहीं करूंगा." ऐसे मानवीय मूल्यों को तरजीह देने वाले थे, दरअसल वो दौर ही आदर्श था.सोहराब मोदी को सन 1980 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. भारत में ऐतिहासिक फ़िल्मों को प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय उन्हें ही जाता है. सोहराब मोदी की शख्सियत के लिए ऑस्कर भी छोटा है, उसकी बदकिस्मती थी, जो उनके साथ जुड़ नहीं पाया...

दिलीप कुमार


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